Friday, October 29, 2010

मेरे हिस्से का आसमान












बादल है गडड मड्ड
रहे हैं घुमड़
लेकर अपनी स्याही
ओट में है
आशाओं का सूरज
धूमिल हो रहे है
मेरी किस्मत के सितारे .

गडगडाहट से इनकी
गिरती हैं
उम्मीदें
कड़कड़ाहट से इनकी
डिगता  है
विश्वास  .

छाये है
बनकर कालिमा
लक्ष्यों पर मेरे
छिपायें है
सारी लालिमा
भोर की मेरे

अब बरस भी जाओ
फुहार बनकर
या बहक ही जाओ
बहार बनकर
कि छंट जाए
ये बादल चौमासे
चमक जाए सूरज
मेरे ओसारे

हो जाए धवल
मेरे हिस्से का आसमान
खिल उठे चांदनी
चाँद की मेरे
लाल हो जाए लाली
आदित्य की मेरे

Wednesday, October 27, 2010

चाँद

ऐ चाँद
बहुत मुस्कुरा रहे हो
आज दिन है
तुम्हारा
कितना इतरा रहे हो

एक झलक को
व्याकुल
पूजनीय हो जिनके
रखा है
जिन्होंने
निर्जला व्रत
पाने को तुमसे
अक्षय अक्षत

आतुर है
वे भी देखने को
तुम्हें
जो रखते है तुमसे
ईर्ष्या
उनका स्थान
जो लिया है
तुमने

कवियों के
रहे हो प्रिय
आज प्रिया के भी हो
चाहती है
उतर आओ तुम
मुख पर उसके
कर दो समाहित
उसमें सभी
सोलह चन्द्रकलाएं

साक्षी हो तुम
युगल हंस
के भाव भीने
प्रणय के
परन्तु
याद होगी अवश्य
वह सूनी रात
जब बिरहन के
अश्रुओं ने
कर दी थी नम
तुम्हारी भी पलकें

उपवास
करवाचौथ का
और
अर्चना तुम्हारी
रखना नजर
न जाये
कोई रात काली
रखना ध्यान
न रहे
कोई झोली खाली

देना
सभी को
वरदान
अमर प्रेम का .

Monday, October 25, 2010

ईश्वर नहीं मैं

दग्ध
कर देने वाले
व्यंग वाण
सुनकर भी
चुप हूँ मैं ।

उपहास उड़ाते
मित्र वृन्द
उपेक्षा
तिरस्कार
करते प्रियजन
पर मौन हूँ मैं ।

उँगलियाँ
जो उठ रही हैं
मेरी ओर
देखकर भी
निर्लिप्त हूँ मैं ।

मुझमें
स्पंदित है ह्रदय
अनगिनत
नश्तर हैं जिस पर
सांसे
चल रही हैं
धौंकनी की तरह
पर शांत हूँ मैं ।

दुःख
होता है पाकर
अवहेलना
अपमान
अनर्गल बातें
देती हैं कष्ट
पर तटस्थ हूँ मैं ।

सुगबुगाते है
जब भी
स्वपन
सुला देती हूँ उन्हें
थपथपाकर ।

सिर उठाती हैं
जब भी
सुसुप्त इच्छाएं
चुप करा देती हूँ
उन्हें आँखों से ।

फिर भी
मुझे नहीं
कोई शिकायत
किसी से
खुश हूँ मैं ।
पर ईश्वर नहीं मैं ।

Friday, October 22, 2010

जीवन सार

बहती सरिता सा जीवन
धार बहे कलकल करती
गिनता रहता यह उपवन
पल पल की आहुति देती ।

रेशम सी मखमली कभी
पथरीली कभी पहाड़ों सी
महासागर सी शांत कभी
अल्हड कभी नदी चंचल सी ।

धूप छाँव के मंजर में
दो पल को सुस्ता लेना
समय से धूमिल एक चेहरा
सुखद स्मृति दोहरा लेना ।

पगडण्डी पर जीवन की
हाथ थाम तुम चलना
राह पड़े जितने पोखर
संभलकर जरा निकलना ।

निर्झरनी सी आसपास
संग संगीत बन बजना
सुकोमल साया रहे पास
मन खनके जैसे कंगना ।

पलकों में सपने भर दूं
नहला दूं इन्द्रधनुष से
मस्तक पूरा चाँद बिठा दूं
भर दूं आँचल तारों से ।

दर्शन मेरा बना यही
अंतस अभिलाषा है मेरी
है जीवन का सार यही
अभिमान मेरा मुस्कान तेरी .

Wednesday, October 20, 2010

तुम समझ न पाए

हौले से दस्तक दी तुमने
खुल गए ह्रदय के द्वार
मन पंछी लगा उड़ने
आया सपनों का राजकुमार ।


पुष्प खिले शरमाई कलियाँ
महकी हवा पर लिए आग
भ्रमर ने गुंजित की गलियां
तितली ने छेड़ा प्रेम राग ।


सोने सा बिखरा पराग
शहजादी परियों की भागे
इच्छाधारी पंख लगाये
उन्मुक्त गगन से आगे .


सोने सा दिन चाँदी रातें
हिलोर तरंगित तन मन में
बाहें झूला मीठी बातें
खिले पलाश चन्दन वन में .


समय चक्र की धुरी घूमे
मौन था सब देख रहा
थरथराते कदम धरा चूमे
स्वपन सलोना रूठ गया .


दीये के पीछे अँधियारा
उसकी लौ पर कहाँ छाये
बाती बिन कहाँ जले दीया
क्यों तुम समझ न पाए .

Tuesday, October 19, 2010

अभिशप्त

एक अहिल्या थी नारी
संत्रास पति ने दिया उसे
पाषाण हुई वह बेचारी
कलंक भाग्य ने दिया उसे ।


नर समाज का विकृत रूप
साध्वी ने कैसे गरल पिया
किससे गुहार कौन अनुरूप
जीवन शिला सा कैसे जिया ।


दुर्दशा देखी एक सती की
शर्मसार था तेजस रूप
त्रेता युग की छवि धूमिल थी
वीभत्स कृत्य पर सब थे चुप ।


तपोबल का अभिमान न था
था अनादर नारी शक्ति का
निर्मूल आशंका का संशय था
था घटता वर्चस्व पुरुष का ।


देवी कहकर मंडित करते
फिर क्योंकर उनको शाप दिया
विश्वास दिखा गरिमा रखते
अस्तित्व रौंद अभिशाप दिया ।


निज आहुति दी पत्थर बन
भस्म हुआ ऋषि का सम्मान
दम्भी पौरुष की यातना सुन
था घोर अनैतिक और अपमान ।


शिलाखंड था प्रतीक्षा में
कब होगा मेरा उद्धार
मोक्ष मिलेगा सद्गति में
चरण रज देंगे तारणहार ।

टूटा नहीं शाप संलिप्त
हर स्त्री लगती शापित है
बैकुंठ से निकलो प्रभु अवतरित
अभिशप्त अहिल्या प्रार्थित है ।