Tuesday, November 30, 2010

जुगनू




चमकता है एक तारा
अँधेरी घनेरी रातों में
चमकीला सा सितारा
कर लूं बंद मुट्ठी में

आशाओं की पहली बही
आस का उड़ता सा घन
जिंदगी थोड़ी छोटी सही
देता प्रकाश पुंज बन

जुगनू मिलेगा हर जगह
चाहो तो चूनर सजा लो
चाँद सूरज की तरह
प्रिय आँखों में बसा लो

राह हो चाहे बड़ी विकट
संचारित करता है सन्देश
गहन निशा का अंत निकट
कहता है धरे प्रिय भेस

सदा चमकती रहे तुम्हारी
मन की बगिया मुझ जैसी
अस्त ना हो प्रीत तुम्हारी
रहे पल्लवित तुम जैसी

जुगनू बन मैं आ जाऊं
भाल तुम्हारे रहूँ जगमग
समीप बना जो रह पाऊं
बिछ जाऊं प्रिया के पग पग

Sunday, November 28, 2010

मैं नहीं मैं





उगते सूरज की लाली
लाली की नरम धूप हूँ मैं 
 
आँगन मैं गौरैया चहके 
चीं चीं का मधुर संगीत हूँ मैं 
 
सिहरा दे जो हवा का झोंका 
उसमें बसा स्निग्ध स्पर्श हूँ मैं 
 
देख उन्हें नजरें झुक जाए 
मद नैनों  की लाज हूँ मैं 
 
राह देखते सावन सूने 
एक लम्बा इन्तजार हूँ मैं  
 
कभी भी  पूरा हो न  सके 
ऐसा अपूर्ण स्वपन हूँ मैं 
 
लगता हैं मैं नहीं मैं 
मन के भावों का भार हूँ मैं

Thursday, November 25, 2010

पगडण्डी

चित्र साभार गूगल 










पगडण्डी
जो तुम तक
नहीं पहुँचती
नहीं जाता मैं उस पर

हवाएं
जो नहीं लाती
तुम्हारी कुशल
नहीं सिहराती मुझे

संगीत
जिसमें तुम ना हो
मन के तारों को
नहीं करता झंकृत

नींद
तुम्हारे सपने ना हो
जिसमें आती नहीं
ना ही सुलाती मुझे

सुबह
नहीं होती खुशनुमा
तुमसे मिलने का यदि
ना हो कोई कारण

पूजा
भावों का नैवैध्य
तुम्हें चढ़ाये बिना
होती नहीं सम्पूर्ण .

Tuesday, November 23, 2010

अधूरे सपने

साभार चित्र  गूगल 












कल्पना के घोड़े पर सवार
मन भरता स्वछन्द उड़ान
भरने को रहता तैयार
अल्पना में एक नया प्राण .

नित देखे सपने नए नए
अलभ्य सुलभ पा जाऊं मैं
कुछ छोटे कुछ रहे विशेष
अधूरे जो साकार करूँ मैं.

सपनों की असंख्य कतार
छोर न इसका दिखता है
एक से जो पा जाऊं पार
सम्मुख समूह उमड़ता है .

विदित मुझे ये असंभव है
चंचल मन को मनाये कौन
सुंदर सा स्वपन सजाया है
सपने से मुझे जगाये कौन .

गढ़ना उसका हुआ सफल
जिसने है पा लिया लक्ष्य
अधूरे सपने हुए विकल
है वृहद यह प्रश्न यक्ष .

यात्रा जीवन की बीत रही
समय का पहिया गतिमान
उसकी  धुरी है घूम रही
कहता मैं बहुत बलवान .

मनुज ह्रदय की प्रकृति
रच लेता अपना संसार
अपना ईश्वर अपनी धरती
सुप्त कामनाओं का भंडार .

अधूरे सपनों का मेला
नैनो में उन्हें बसाये रहना
आएगा प्रीत लहर का रेला
आशा किरण थामे रखना .

Saturday, November 20, 2010

जीवन है


चित्र  साभार  गूगल  












जीवन है
एक उत्सव
जब हो
तुम्हारा तत्त्व


जीवन है
एक उल्लास
साथ हो
तुम्हारा परिहास
जीवन है
एक नई भोर
तुम्हारे प्रेम का
ना कोई छोर .


जीवन है
चटक चांदनी
संग बजे जब
तुम्हारी रागिनी

जीवन है
खनकता कंगन
बंध जाए जो
तुमसे बंधन .


जीवन है
सुरा का प्याला
मिले जो तुम सा
पीने वाला .

जीवन है
एक प्रेम कहानी
राधा रही
कृष्ण दीवानी .


जीवन है
एक सप्तम राग
सुर ताल संग
खेले फाग .
जीवन है
एक वसंत
रंग हैं इसमें
अति अनंत .


जीवन है
एक रसमय गीत
शहद घोलती
तुम्हारी प्रीत .
जीवन है
 एक सुंदर रीत
जगमग करता
मन का दीप .


जीवन है
एक आँगन
चूल्हा तुलसी
और चन्दन .
जीवन है
एक पावन पूजा
हुआ ना तुझ सा
कोई दूजा .

Thursday, November 18, 2010

पनघट

चित्र गूगल से साभार













नाम लेते ही
पनघट
कल्पना में
सजीव हो उठता है
एक चित्र

एक कुआं
पानी खींचती एक नवयौवना
सुंदरियों का एक समूह
पानी का घट उठाये
इन्तजार में बैठी
एक गोरी

जल भरने से ज्यादा
बातें करने में व्यस्त
उनकी बातों में प्रेम और
प्रेम कहानियां
प्रिय की बातें करने का
सबसे सुरक्षित स्थान
एक झलक पाने
का स्थायी ठौर

उनकी गगरी से
छलकते जल
की खुशबू
से भरता रोमांच
पगडंडियों पर
थिरकते पावों
की रुनझुन
से उपजता संगीत

राधा की मटकी
कृष्ण के कंकड़
सोहनी की प्रतीक्षा
महिवाल की आकांक्षा
साक्षी जिनके
पनघट के घाट
कहाँ रहे वो ठाठ

आज नहीं हैं पनघट
नहीं प्रत्यक्ष हैं
पनिहारिने
लेकिन अब भी
जीवंत हैं
पनघट से जुडी
प्रेम कहानियां
कहीं न कहीं अंतस में .

Wednesday, November 17, 2010

कटी पतंग














पतंग
की तरह
लगता है 
अपना भी जीवन .
 
पतंग
तय नहीं करती
अपनी दिशा
हवा का रुख
ही करता है विवश
निश्चित दिशा
की ओर उसकी उड़ान
और उड़ान की गति
होती है
किन्हीं हाथों में .
 
समय के थपेड़े  
और
परिस्थितियां
ही तय करते हैं
हमारे जीवन की दिशा
और नियंत्रित होती है
गति
किन्हीं हाथों से .
 
खास अवसरों पर
लड़ाए जाते हैं
पेंच
मनोरंजन के लिए
जो पतंग से ज्यादा
उनके मालिकों के बीच
होते हैं
शीतयुद्ध जैसे . 
 
पतंग से
नहीं पूछता कोई
कि  कैसा लगता है उसे
जब लड़ाया जाता है
मन बहलाव के लिए
अपना वर्चस्व दिखाने के लिए .
 
डोर चाहे
कितनी भी मजबूत
क्यों न हो
कटना ही उसकी
नियति है 
 
रंग बिरंगी
पतंगों के
भाग्य की
विडंबना ही है कि
उन्हें  खुद नहीं पता 
कि कटने के बाद 
गिरेंगी किसके आँगन 
या फिर किसी 
तरू शाख पर 
झूलती रहेंगी 
चिंदी चिंदी होने तक .  

Monday, November 15, 2010

नजर उठा बस तक लेना

होगा जब मधुमास प्रहर
मलय बावरी इतराएगी
डोलेगी  सिहर सिहर
प्रेम संदेशा लाएगी .

सपनो के लगा के पंख
चाँद से मिलने जायेगी
चाँद उतर आए धरा पर
चंदनिया पैर पखारेगी .

झिलमिल रंगीन सितारे
डोला लेकर आयेंगे
चंदा सूरज बने कहार
पटरानी को ले जायेंगे .

उतावले मेरी बांह हिंडोले
तुम्हें आठों पहर झुलाएंगे
थक जाएँ जब नैन परिंदे
सपनों  में उन्हें सुलायेंगें .

आओगे प्रिय जिस राह से
मुझे जरा बतला देना
राह बुहार दूं पलकों से
नजर उठा बस तक लेना .

Sunday, November 14, 2010

लौट जाओ तुम अपने नीड़

अधरों का तनिक  विस्तार 
करती  विस्तृत  दुनिया उसकी
एक हंसी की पतली  रेखा
भर देती  झोली उसकी .

एक झलक पाने को बस
सदियों तक रखते धीर
चंदा सूरज तारे पूछे
किसके लिए  रहो  अधीर  .

पलक कहे नैनों में भर लूं
ह्रदय समाना चाहे आह में
बाहें कहती कंठं लगा लूं
कदम जाए ठिठक  राह में .

मलिनता देखी जो मुख पर
सब ओर छा जाए अंधकार
ज्योतिपुंज  ले आऊं  धरा पर
जगमग का हो जाए अधिकार .

सपनों का मेरे पता  पूछते
धरा से लेकर अम्बर तक
खोज में उनकी रहे जूझते
जाऊं उन्हें  लाने  पाताल तक . 

स्मृतियाँ मेरी उन्हें रूलाती
हर लेती हैं दिल का चैन
प्रीत की मैना उन्हें सताती
जाग जाग कर काटे  रैन .

लौट जाओ तुम अपने  नीड़
पाषाण  ह्रदय पर रख लूं मैं
छुपा न ले दुनिया की भीड़
भावों में अपने भर लूं मैं .

Wednesday, November 10, 2010

लक्ष्य नहीं मैं

व्यक्तित्व में मेरे
थोडा गुरुत्व
करता आकृष्ट
तुम्हारा प्रभुत्व .

निजता मेरी
लगे भली
तुमको देती
कुछ खलबली .

शब्द मेरे
थोड़े साधारण
लगते तुमको
अति असाधारण .

सपने मेरे
आँखों में तुम्हारी
प्रश्न तेरे
भरते हैं खुमारी .

पलकें मेरी
आस सजाये
होगी पूरी
दिन कब आये .

भाव मेरे
लगते अनदेखे
मन के चितेरे
रहते बिनदेखे .

मेरा मोहपाश
तुमको बांधे
लक्ष्य नहीं मैं
बढ़ जाओ आगे .

Monday, November 8, 2010

आंसू



बहुत भारहीन हो तुम
जरा खुश हुए
कि छलक आते हो तुम
थोडा दिल दुखा नहीं
कि समंदर ले आते हो .




लगता है मीठा
ख़ुशी के अतिरेक में
यह खारा पानी
लाख छिपाना चाहो
बह ही जाता है .

कीमत भी भिन्न
भिन्न भिन्न
स्थितियों में
प्रिया के आंसू
मोतियों से भी मंहगे
माँ के आँसू
अनमोल
आंकी नहीं जा सकती
जिसकी कीमत

गरीब के आंसू
बेमोल
नहीं जिसकी
कोई कीमत
बहते है लावारिसं
और स्वयं सूख भी जाते है
नहीं बढाता कोई हाथ
उसे पोंछने को
देने को दिलासा

कभी निर्णायक
भी बन जाते है ये
पुख्ता साक्ष्य भी है
सच और झूठ का
निर्णय टिका होता है
कभी कभी इन पर
ये तो उन आँखों
पर निर्भर है
जिनमें बसते हैं
ये आंसू

कभी हंसाते है
कभी रुलाते है ये
काबू पाना इन पर
नहीं आसान
छलकाना इनको
भी नहीं आसान
छिपाना भी है
बहुत मुश्किल

आंसुओं 
तुम्हें तुम्हारी कसम
कभी न आना
मेरे प्रिय के
नैनो में
बदल लेना राह
उन लाल डोरों से
जिनमें बसते हैं हम .

Wednesday, November 3, 2010

इस दिवाली तुम आना





























इस दिवाली तुम आना


चमकता ध्रुवतारा बनकर


मेरे झरोखे टिक जाना


एक सबल आशा बनकर .






इस दिवाली तुम आना


नीलकमल फूल बनकर


शीश देवों के अर्पित होना


मेरी आराधना बनकर .






इस दिवाली तुम आना


सूर्यमुखी सा तेज लिए


बिन देखे न कुम्हलाना


सूर्योदय की आस लिए .






इस दिवाली तुम आना


भावों का कुंड बनकर


मन का सारा तम हरना


अलौकिक एक दीप बनकर .






इस दिवाली तुम आना


मेरी प्यारी मैना बनकर


मीठे बोल सुना जाना


मधुमास की रैना बनकर .






इस दिवाली तुम आना


मोगरे की कली बनकर


तन मन महका जाना


जूडे की वेणी बनकर .






इस दिवाली तुम आना


सुंदर सी कविता बनकर


सारा द्वेष तिरोहित करना


निर्मल सी सरिता बनकर .






इस दिवाली तुम आना


सखा मेरे मीत बनकर


जीवन दीप्त मेरा करना


जादुई दीपक बनकर .

Tuesday, November 2, 2010

परिवर्तन

महुवा था गिरता
मेरे दालान ओसारे
खुशबू था फैलाता
आँगन और चौबारे .

पौ फटने के साथ
पनघट पर जाना
सखियों से मिलना
बतियाँ भर लाना .

पूरब की लाली
चमकाती बाली
रंभाती गइयां
हांकती मईया .

अन्न और दलहन
कहलाता था गल्ला
छोटी खुशियों से
हँसता था मोहल्ला .

आंसू या मुस्कान
सब होते थे साझे
जरा छलक जाए
सब रहते थे आगे .

कहाँ गए वो
दिन सीधे सादे
सूरज था फीका
बिंदिया के आगे .

आया ये कैसा
परिवर्तन है
अदृश्य  हुआ
सब आकर्षण है .

चाँद और तारे
सब हैं यथावत
धरती की धुरी
गति से समागत .

कहाँ खो गया
वो अमृत कलश
गजानन एरावत
कामधेनु की झलक .

रिक्त हो चला
मनु तेरा संसार
भाव  बिन फीका
श्रद्धा का अभिसार .

रंगों की एक तूलिका
फेर दो मुझ पर कभी
खिल उठे कोई कलिका
गुनगुना उठे भ्रमर तभी.

Monday, November 1, 2010

तय नहीं था जो

सूरज था अपने यौवन पर
बिखरी अभी थी लालिमा
घन दल आये उस पर
छा गई घोर कालिमा .

बसंत था कुछ अलसाया
थी बहारें भी बहकी हुई
कौन राह से पतझड़ आया
बगिया सारी सुनसान हुई .

आशा थी पुष्प आया
नया सा मेरे उपवन में
बैरी अंधड़ बन आया
वीरानी दे गया चेतन में .

बेमौसम की ये बरसात
बहा ले गई मन का गाँव 
दूर कर दिया अपनों से
रहा नहीं कोई अपना ठाव .

चंदा था बहुत गुमान किए
चांदनी संग करता अठखेली
मैं तेजस घट साथ लिए
रूपस न तुम मुझसे अलबेली .

कैसे बदला मीत मेरा
जीवन हो गया रसहीन
तय नहीं था जो गया गुजर
कैसे रहना होगा तुम बिन .