Friday, December 31, 2010

नए साल की लख लख वधाई

धवल दूध सा उज्जवल मुख

घुंघराली लट है खेल रही
नैनो में छाई है शोखी
मुस्कान अधर पर तैर रही ।

तुम हो प्रियतम मेरे
कहते आती है लाज मुझे
मैं बनूँ तुम्हारी प्रियतमा
सिहरन सी आती है मुझे ।

पंखुरियों का महा सैलाब
ले जाये बहा मझधार में
नए वर्ष की है आरजू
खुशबुओं का झंझावात
रच बस जाये तुम्हारे संसार में 

Monday, December 27, 2010

नया साल आया है










दुल्हन सा बैचैन मन
जागा सारी रात
नए वर्ष के द्वार पर
आ पहुंची बारात ।
शहनाई पर 'भैरवी'
छेड़े कोई राग
या फूलों पर तितलियाँ
लेकर उड़ीं पराग ।
इतनी सी सौगात ला
आने वाले साल
पीने को पानी मिले
सस्ता आटा , दाल ।
भाषा, मजहब, प्रान्त के
झगडे और संघर्ष
तू ही आकर दूर कर
मेरे नूतन वर्ष ।
ये बूंदें हैं ओस की
या मोती का थाल
आओ देखें गेंहू के
खेतों में नव साल ।
वो सरसों के खेत में
सपने, खुशियाँ, हर्ष
अपने घर और गाँव भी
आया है नव वर्ष ।
नई भोर की रश्मियों
रुको हमारे देश
अंधियारों से आखिरी
जंग अभी है शेष ।

Monday, December 20, 2010

सर्दी













कोहरे के आलिंगन में
है भोर ने आँखे खोली
चारों ओर देख कुहासा
न निकली उसकी बोली ।

सरजू भैया मिलें कहीं
तो उनसे सब बोलो
क्यों ओढ़े हो बर्फ रजाई
अब तो आंखे खोलो ।

दर्शन दो, हे आदित्य
जन जीवन क्यों ठहराया है
जड़ चेतन सब कंपकंपा रहे
कैसा कहर बरपाया है ।

नरम धूप का वह टुकड़ा
गुनगुनी सी कितनी भली लगे
फैला दो अपना उजास
चराचर को भी गति मिले

करूँ किसको मैं नमस्कार
तुम तो बस छिपकर बैठे हो
करूँ किसको अर्ध्य अर्पण
तुम तो बस रूठे बैठे हो ।

रक्त जम गया है नस में
पल्लव भी मुरझाया है
डोर खींच ली जीवन की
निर्धन का हांड कंपाया है ।

इस मौसम में एक सहारा
बस अमृत का प्याला
लबालब जिसमें नेह भरी
हो साकी, कोई पीने वाला । 

Monday, December 13, 2010

धरा

चित्र साभार गूगल 

 
जननी सा विस्तार समाया 
आँचल जैसी छाँव बसी
गुण अवगुण अंग लगाया
ममता हँसे निर्मल हंसी .

दूब नरम  या अड़ा पहाड़
आधार ठोस मैं ही तो हूँ
कलकल नदिया सागर दहाड़
पड़ाव आखिरी मैं ही तो हूँ .

अन्न का दाना कंद मूल
सब जीवों का जीवन सार
हीरा पन्ना मोती मानिक
मुझमें जन्मते लिए आकार .

शांत समंदर है गहराता
अपने भीतर संसार लिए 
ज्वालामुखी लावा गरमाता
थोडा सा कुछ  क्रोध लिए .

मैं सृष्टा मुझसे सृष्टि
है जीवन में हलचल
करूँ दुलार स्नेह  वृष्टि
बढे प्रेम धार पलपल . 

मैं  वसुंधरा धैर्य घना
माता जननी या पालक
देव-मनुज करें वंदना
सब जीवों की परिचालक .
अति उदार करुणा बहती  
अलंकार सब संसाधन
दोहन को ना कहती
हरीतिमा है प्रसाधन  . 

छू लो तुम चाहे  गगन
जमीं पर आना ही होगा
संसार झुका रहो मगन
मुझमें समाना ही होगा .












Thursday, December 9, 2010

कलश












कलश प्रीत का लिए चली
आराध्य तुम्हें अर्पण कर दूं
चुन ली कलियाँ खिली खिली
कहो प्रिय समर्पण कर दूं .

सुरा कलश नैन तुम्हारे
वाणी से सुधा बरसती है
देख तुम्हें मन शंख बजे
पतित पावनी बहती है .

भावों की भरकर गागर
नेह छलकता जाता है
बसा वहां विश्वास का सागर
उमड़ता बाहर आता है .

किधर रखूँ अनमोल गगरिया
कहीं छलक न जाए अमृत
प्रेम की प्यासी अपनी नगरिया
रह जाएँ न हम तुम अतृप्त .

आँखों में बसाऊं ह्रदय छिपाऊं
दे दूं आवरण पलकों का
कस्तूरी महके कैसे बताऊँ
ले लूं बहाना अलकों का .

जो तुम मिल जाओ डगर
ये कलश तुम्हारे हाथ धरूं
किससे कहूं व्यथा अपनी
मन की मन ही में रखूँ .

भरा कलश प्रतीक प्रेम का
वैभव का घट भी कहलाता
मैं बन आऊ कलश शगुन का
मन में भाव हर पल आता

Tuesday, December 7, 2010

पल्लव
















तरू का लघु रूप हूँ मैं
पल्लव नवीन कहलाता हूँ
सुकुमार सूक्ष्म कोमल हूँ मैं
सभी के मन को भाता हूँ .

बीज रोप दिया माली ने
नित्य प्रतीक्षा करता है
आँखें खोली अंकुर ने
मन ही मन हँसता है .

छोटा सा एक नन्हा सा
पाषाण भेद कर आया
धरती ने है रचा मुझे
ममता से अपनी सहलाया .

मेरे जैसे पल्लव पुलकित
कल वटवृक्ष बन जायेंगे
कंद मूल से वे छलकत
सृष्टि रक्षक कहलायेंगे .

मैं हूँ तुम्हारा बालरूप
पेड़ घना हो जाऊँगा
जन्मेंगे मुझ से पल्लव
उन पर दुलार लुटाऊंगा .

करते कलोल काक कोकिल
मीठा संगीत सुनायेंगे
तोता मैना के किस्से
पथिकों का मन बहलाएँगे .

हरी भरी वसुंधरा को
बंजर ना होने देंगे हम
हरित फलित रहे सदा
अक्षत स्मित रखेंगे हम .

Saturday, December 4, 2010

पीले पड़ते पत्ते











पतझड़ में पत्ते पीले
वियोगी से हो जाते हैं 
बिरहन के नैना गीले
व्यथा कथा बताते हैं .
 
शाख पर सजे शोभित 
वासंती बयार झुलाते हैं
आता  जब पतझड़ क्रोधित 
धरा पर आ गिर जाते हैं . 
 
छूट गए  रिश्ते सब
टूट जाता है   नाता 
साथी छूट गए जब 
जीवन मौन राग गाता .
 
कोंपल पल्लव नवीन
देख सभी थे हर्षाते
टूटकर हुए ग़मगीन
फिर से ना जुड़ पाते .
 
हरा भरा घर अपना
चिड़िया बसाये बसेरा
स्वयं  गर्मी में तपना
देना घनी छाँव का डेरा .
 
कैसा सुंदर था जीवन 
रागरंग में याद ना आई
फला हो चन्दन उपवन 
जाने की अब  बेला आई  
 
 
पीले पड़ते  पत्ते कहते 
क्षणभंगुरता  की कहानी
आना फिर जाना झड़ते  
याद रखो ये जबानी .  

Wednesday, December 1, 2010

दोनों के दोनों















तुम यदि
वसंत हो
मैं भी तो
हेमंत हूँ
                     प्रिय हैं
                     दोनों के दोनों

तुम यदि
भोर हो
मैं भी तो
उजास हूँ
                     संग हैं
                     दोनों के दोनों

तुम यदि
राग हो
मैं भी तो
ताल हूँ
                    मधुर हैं
                    दोनों के दोनों

तुम यदि
चाँद हो
मैं भी तो
चाँदी डोर हूँ
                   शीतल हैं
                   दोनों के दोनों

तुम यदि
पुष्प हो
मैं भी तो
पराग हूँ
                   महकते हैं
                  दोनों के दोनों

तुम यदि
फाग हो
मैं भी तो
गुलाल हूँ
                   रंगीन हैं
                  दोनों के दोनों

तुम यदि
गीत हो
मैं भी तो
संगीत हूँ
                  चुम्बक हैं
                  दोनों के दोनों

तुम यदि
प्रेम हो
मैं भी तो
विश्वास हूँ
                  पूरक हैं
                 दोनों के दोनों .