तपन को बढाती
बरस बरस के
लोचन भर जाती
कोकिल के पंख भीगे
कैसे भला उड़ पाती
उलझे हैं मन के धागे
कैसे उन्हें बुन पाती
क्षितिज तक निहारे
घन भर भर छाये
किसको वह पुकारे
जो इन्हें उड़ा ले जाए
इन कोमल बूंदों ने
मन को हुल्साया
टप टप के गान ने
स्पंदन भी ठहराया
चली जाओगी बदरी
बरस के तुम निकल
आंसुओं की गठरी
लिए बिरहन रहे विकल
जग सारा जुडाया
मुझमें क्यों दाह भरी
पुरवा ने द्वेष उड़ाया
मुझमें है आह भरी
रिमझिम सी बूँदें
दरिया उफान लायेंगी
नाम तुम्हारा गूंजें
स्मृति बहा न पाएंगी .