हवा
नही रुकेगी
बहेगी अनवरत
लेकिन नही होगी उसमें
खुश्बू तुम्हारी
तुम्हारे जाने के बाद...
धूप का
नहीं बदलेगा रंग
न ही ताप
लेकिन गीली नही होगी
धूप
तुम्हारे जाने के बाद
एक गौरैया
आएगी मेरी खिड़की पर
सुनाएगी गीत
पर उसमें नहीं होगी
मिठास
तुम्हारे जाने के बाद
आएगी बरखा
घूँघट उठा
बरसेगी छमछम
फुहारों से अपनी
भिगोएगी तन
पर नहीं भीगेगा
मन
तुम्हारे जाने के बाद
बांह पसारे
पसरेगा वसंत
झूमेंगें भँवरे
गायेंगी तितलियाँ
खिलेंगे सुमन
पर नहीं खिलेगी मेरी
आशाओं की कली
तुम्हारे जाने के बाद
थके क़दमों से
आएगा चंदा
बिखराएगा चंदनिया
पर नहीं भर पायेगा
उजास
मेरे आँगन
तुम्हारे जाने के बाद .
शब्द पिरोये बिना भाव के
कहाँ से भर दूं प्राण
बिना चाँद और तारों के
अम्बर भी है निष्प्राण
मन के आँगन उतरी
गौरैया भी है निराश
छलकी जाए नैन गगरी
कैसा आया संत्रास
अन्दर बाहर फैला है
स्याह अँधेरा पास
लग रहा है इन दिनों
अमावस्या का है वास
जुगनू ने भी है ठानी
भर दूं पथ प्रकाश
मन की किसने है जानी
जीवन में भरी आस
सुन लो सूरज और चांदनी
तुम बैठे हो आकाश
तुमको है एक डोर बांधनी
प्रिय आयें लेकर अवकाश
तुम्हारी आँखों सा
बसा जो समंदर है
मेरे भावों की नदी सा
बहता कलकल है
तुम्हारे आँचल में
बसा जो आकाश है
मेरे सपनों के सितारों से
झरता झिलमिल है
तुम्हारे हाथों में
बनी जो लकीरें हैं
मेरे भाग्य की रेखाओं से
जाकर मिलती हैं
तुम्हारे अधरों में
छिपा जो गीत है
मेरे ह्रदय के तारों से
उपजा संगीत है
तुम्हारे पाँवों में
बंधी जो पायल है
सुनने को रुनझुन
मन पागल है
तुम्हारी अलकों में
उलझी जो लट है
सुलझाने को व्याकुल
उलझने की रट है
तुम्हारे शब्दों में
छिपा जो मीत है
कोई और तो नहीं
तुम्हारा मनमीत है .
एक खालीपन पसर गया है
मन के भीतर
बाहर भी
तुम जो नहीं हो पास
उदासी के घन
घिर आये हैं
अँधेरा फैला है
चारों ओर
सूरज तुम
छिप गए हो उसकी ओट
वैराग्य सा
समाता जा रहा है
आत्मा में
विरक्ति आसीन
हो रही है
वसंत तुम
कब आओगे लेकर आसक्ति
मोह सा
बढ़ता जा रहा है
जीवन से
इन्द्रियां सभी
अनियंत्रित हो रही हैं
विवेक तुम
कहाँ हो चुराकर चेतना.
हवा हूँ मैं
महसूस कर सकते हो
प्राण वायु हूँ
स्वयं में भर सकते हो
अस्तित्व दिखता नहीं
मौजूद हूँ मैं
आकार कोई नहीं
आसपास हूँ मैं
चलती हूँ
मन की गति से
रूकती हूँ
दुःख की अति से
दिशाहीन हूँ
सब ओर बहूँ
लक्ष्यहीन हूँ
बहती ही रहूँ
कोई अपना हो
जो रोके मुझको
मेरा सपना हो
जो टोके मुझको
किसी को लगूं
शीतल बयार
किसी को ठगूं
महकता हार
उनके कानों में
कुछ कह जाऊं
प्रिय के बालों में
पुष्प सजाऊँ
तेज चलूँ
आँचल ढलकाऊं
धीमे बह
चूनर उडाऊं
दो फूल
आस पास थे
लाल रंग उनका
खिल रहा था
एक भंवरा
आस पास था
रंग सुर्ख चटक
लुभा रहा था
एक तितली
उड़ कर आई
खिला हुआ सुमन
बुला रहा था
पुष्प के माथे
झिलमिल करता
ओस का मोती
सजा रहा था
खिली थी
और भी कलियाँ
पर यह फूल
मुस्कुरा रहा था
कहते थे
उसके पराग
कब आओगे
रास्ता देख रहा था
उसकी पुकार
तोड़ लेना मुझे
देना उनको
जो मन के करीब था .
सुन्दरता कहती
तुम सुन्दर
सृजना रहती
तुम्हारे अन्दर
कोमलता कहती
तुम कोमल
करुणा बहती
तुम्हारे अन्दर
लालिमा कहती
तुम हो लाल
लज्जा भरती
तुम्हारे गाल
पवित्रता कहती
तुम पावन
पूजन करती
तुम्हारे आँगन
सरलता कहती
तुम बहुत सरल
सबसे मिलती
होकर के विरल
सहजता कहती
तुम सहज
नहीं होती
कभी असहज
बड़प्पन कहता
तुम हो बड़ी
हर स्थिति में
रहती हो खड़ी
आशा कहती
तुम हो आस
निराशा तकती
नहीं आती पास .