चित्र साभार गूगल |
कहते हैं
प्रेम का दूसरा रूप
है ईश्वर
और उसकी आराधना
ईश्वर का कोई
रूप नहीं होता
आकार नहीं होता
निराकार है
लेकिन प्रेम के
अनेक रूप हैं
कभी बिंदिया सा गोल
सूरज और चाँद
जैसा लुभावन
कभी परांठे जैसा
गोल और नरम
प्रीत की ऊष्मा में
तपा हुआ
कभी गुलाब की
सूरत लिए
सुर्ख लाल
वेणी में सजी
इठलाती मोगरे की कली
कभी खनखनाता कंगन
करता कलाई का आलिंगन
नहीं चाहता होना अलग
एक पल को भी
टूट कर बिखर जाने तक
कभी चाशनी से मीठा
कभी इमली से खट्टा
कभी कागज की
शक्ल लिए
एक सुन्दर नज्म
कभी भावपूर्ण अल्फाज लिए
मधुर गुनगुन गीत
कभी बस जाता है
आँखों में तुम्हारी
कभी आँखें दिखाता है
अधरों पर मेरी
हँसता है कभी
चंचल चपल
लुभाता है कभी
तुमने देखें है कभी
ईश्वर के इतने रूप
जितने है प्रेम के
फिर कहो
कैसे हैं दोनों
बराबर
Choti choti cheezon aur baaton mein prem dhoondhti lajawaab rachna hai ...
ReplyDeleteप्रेम की एक नयी परिभाषा से अवगत करा रही है आप , आभार
ReplyDeleteप्रेम को बड़े सटीक प्रतीकों से व्यक्त किया है। बहुत सुन्दर।
ReplyDelete"लेकिन प्रेम के
ReplyDeleteअनेक रूप हैं
कभी बिंदिया सा गोल
सूरज और चाँद
जैसा लुभावन
कभी परांठे जैसा
गोल और नरम"
प्रेम कि सुंदर व्याख्या, सुंदर प्रस्तुति
prem ke anek roop hai..jo dikhte hai par ishvar ke anek roop dikhai nahi dete ya ye kahe ki ishvar ke roop ham dekh kar bhi dekh nahi pate...
ReplyDeleteप्रेम की सुन्दर व्याख्या । बहुत अच्छी रचना। बधाई।
ReplyDeleteसुंदर व्याख्या...प्रेम की
ReplyDeleteबहुत रूमानियत लिए ... नाज़ुक एहसासों में समेटा है इस रचना को ....
ReplyDeleteबहुत लाजवाब ...