काजल की कोठरी
जन्मस्थली है मेरी
धरती और आसमान
मेरा घर संसार
अमावस को माना
पूर्णिमा शरद की
काले कटोरों में
थी सुधा सपनों की
पूरे हुए कुछ
कुछ को किनारा
डूबे कुछ मझधार
कईयों का वारा न्यारा
बैठें है आस में कई
आये कोई उबार ले
प्रतीक्षा में आँख भींचे
कोई तो संवार दे
कुछ से तो
की बड़ी मनुहार
ना खोलो पलक
जाओगे खुद को हार
माने ना ये खुदगर्ज
दामन छुड़ा लिया
जाने को दूर हमसे
उनको बुला लिया
दिखाओ ना सूरज इन्हें
सह नहीं पायेंगे
पंख झुलस जो गए
फिर उड़ ना पायेंगे .
• इस कविता के द्वारा आपने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि आपकी रचनात्मकता मरुस्थल में भी सूखी नहीं है।
ReplyDeleteदिखाओ ना सूरज इन्हें
ReplyDeleteसह नहीं पायेंगे
पंख झुलस जो गए
फिर उड़ ना पायेंगे .
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बहुत उम्दा रचना!
बहुत उत्तम शब्दों का चयन किया है आपने!
दिखाओ ना सूरज इन्हें
ReplyDeleteसह नहीं पायेंगे
पंख झुलस जो गए
फिर उड़ ना पायेंगे .
सुन्दर और प्रशंसनीय अभिव्यक्ति , बधाई ..
प्रशंसनीय अभिव्यक्ति सुन्दर रचना! आपकी लेखनी की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है!
ReplyDeleteसुन्दर भावों को संजोये अच्छी रचना
ReplyDeleteदिखाओ ना सूरज इन्हें
ReplyDeleteसह नहीं पायेंगे
पंख झुलस जो गए
फिर उड़ ना पायेंगे .
bahut bhaavpurn abhivyakti, badhai sweekaaren.
very nice bahut hi spasht aur bhavpurn likha hai aapne jitni taarif ki jaye utna kam hai....
ReplyDeleteshabdon ka chayan aur unko sajoya bahut acche se gaya hai....wakai bahut sundar
अमावस को माना
ReplyDeleteपूर्णिमा शरद की
काले कटोरों में
थी सुधा सपनों की
ज़िन्दगी मे जिसने दुख सुख सहे वही असल मे जीया है। भावमय प्रस्तुति। शुभकामनायें।
माने ना ये खुदगर्ज
ReplyDeleteदामन छुड़ा लिया
जाने को दूर हमसे
उनको बुला लिया
bhaut khub, jab koi dur jata hai woh wapas nahi ata.
दिखाओ ना सूरज इन्हें
ReplyDeleteसह नहीं पायेंगे
पंख झुलस जो गए
फिर उड़ ना पायेंगे .
काश यह हर कोई समझ पाता।