Sunday, May 29, 2011

प्रिय आयें लेकर अवकाश

















शब्द पिरोये बिना भाव के 
कहाँ से भर दूं प्राण 
बिना चाँद और तारों के 
अम्बर भी है निष्प्राण 

मन के  आँगन उतरी 

गौरैया भी है निराश 
छलकी जाए नैन गगरी 
कैसा आया  संत्रास 


अन्दर बाहर फैला है 
स्याह अँधेरा पास 
लग रहा है इन दिनों 
अमावस्या का है वास 


जुगनू ने भी है ठानी 
भर दूं पथ प्रकाश 
मन की किसने है जानी 
जीवन  में भरी आस
  

सुन लो सूरज और चांदनी 
तुम बैठे हो आकाश 
तुमको है एक डोर बांधनी
प्रिय आयें लेकर अवकाश

13 comments:

  1. सुन लो सूरज और चांदनी
    तुम बैठे हो आकाश
    तुमको है एक डोर बांधनी
    प्रिय आयें लेकर अवकाश

    -भावपूर्ण.

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  2. कमेंट्स चाहे न दे पाऊं,पर पढ़ती हूँ नियमित आपको,आपकी कविताओ को.
    सुन लो सूरज और चांदनी
    तुम बैठे हो आकाश
    तुमको है एक डोर बांधनी
    प्रिय आयें लेकर अवकाश ' कैसी डोर बांधेंगे दोनों?सूरज आग बरसाने वाला ....तो चांदनी ठंडी ठंडी लहर दौड़ा देती है सारे माहोल में.ओह न ठंडक न तपन ...बीच का मधुर मौसम ! प्रिय के आगमन पर इससे सुंदर और क्या हो सकता है?सुन्दर भावानुभूति सुन्दर भावाभिव्यक्ति !

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  3. शब्द पिरोये बिना भाव के
    कहाँ से भर दूं प्राण
    बिना चाँद और तारों के
    अम्बर भी है निष्प्राण.

    सुंदर भावों से सुसज्जित रचना.

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  4. एकाकी मन की भावुक अब्भिव्यक्ति।

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  5. भावो का बहुत ही सुन्दर समन्वय्।

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  6. बहुत सुन्दर रचना!
    बिम्बों के माध्यम से बहुत कुछ कह दिया है आपने!

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  7. अहा, बड़ी सुन्दर प्रेम अभिव्यक्ति।

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  8. मन के एकाकी भावों को सॅंजो कर लिखी रचना ... सुंदर है ...

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  9. अन्दर बाहर फैला है
    स्याह अँधेरा पास
    लग रहा है इन दिनों
    अमावस्या का है वास
    बहुत सुन्दर रचना.....

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  10. बहुत सुन्दर रचना! सुन्दर भावानुभूति भावाभिव्यक्ति !

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  11. सुन लो सूरज और चांदनी
    तुम बैठे हो आकाश
    तुमको है एक डोर बांधनी
    प्रिय आयें लेकर अवकाश

    very nice

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  12. सुन लो सूरज और चांदनी
    तुम बैठे हो आकाश
    तुमको है एक डोर बांधनी
    प्रिय आयें लेकर अवकाश bahut sunder...

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