भोर हुई सूरज आया
पर उसमें वह ताप कहाँ
नव जीवन का संदेसा लाया
चली गई वह आब कहाँ
निकली गौरैया नीड़ से अपने
किसके आँगन जाऊं मैं
मेरा ओसारा सूना पड़ा
किसको गीत सुनाऊँ मैं
आया एक कबूतर जोड़ा
सोचा कुछ दाना चुग लूं
देखा पसरा था सन्नाटा
कहा कि उनकी सुधि ले लूं
धूप गुलाबी का एक टुकड़ा
छनकर आता खिड़की से
आज खड़ा है चौखट थामे
क्या जाऊं अन्दर झिडकी से
निस्तब्ध खड़ी दीवार घडी
समय न काटे कटता है
जीवन चक्र रूका हो जैसे
जरा भी नहीं सरकता है
क्यारी में जो खिला है टुह टुह
नहीं रही रंगत उसकी
किसकी वेणी में ठहरूं
व्यर्थ जिन्दगी है मेरी
ह्रदय करता है क्रन्दन
गए कहाँ मेरे रघुराई
गया संग मेरा स्पंदन
लौटा लाओ जग जिय जाई
रुनझुन में पड़ जाए प्राण
पुरवाई जीवनदायिनी हो
नाचे मोर पपीहा चहके
प्रिय क़ी चली पालकी हो .
wah re bhor:)
ReplyDeletepyari si rachna.......
बहुत ही खुबसूरत प्रस्तुति ||
ReplyDeleteबधाई महोदया ||
अद्भुत दृश्य उपस्थित किया है।
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण रचना...बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteनीरज
भावपूर्ण और प्राकृतिक उपालम्भों से भरी पड़ी रचना ..
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
ReplyDeleteयदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
सुन्दर प्रयास .... रुचिकर सृजन शुभकामनायें जी /
ReplyDeletebahut sundar rachna
ReplyDeletebahut hi sundar rachna
ReplyDeletebehtarin rachan..sadar badhayee
ReplyDeleteअद्भुत..
ReplyDeleteलाजवाब प्रस्तुति अद्भुत भाव और शब्द सयोंजन
ReplyDeletebhaut hi adhbhut prstuti...
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