Thursday, March 31, 2011

लघु जीवन







ओस की बूँद 
बहुत निर्मल 
गिरती जिस पर
करती पावन 

फूलों पर 
मोती बिखराती 
पत्तों पर भी 
रूप सजाती 

आँख खुले 
पलकों सजती 
प्रकृति में 
शीतलता भरती 

बांह पसारे  
ह्रदय लगाती 
कल फिर आऊंगी  
कानों में कहती

नभ से गिरती 
और फिसलती 
नव दिन की 
आशा भरती 

स्वयं कहती 
एक कहानी 
आना मिटना 
जीवन की रवानी 

क्षणभंगुर है 
अपना  उपवन 
मधुमय करता 
इसका लघु जीवन   .

Tuesday, March 29, 2011

तुम्हारे गीत के बोल











एक सुगंध
छोड़ गई हो तुम
जो बसी है
मेरे ह्रदय में
और प्रेरणा बन
सुबासित कर रही है
मेरा तन 
मन भी 


एक छवि 
भूल आई हो तुम 
मेरे ओसारे 
स्थापित है 
आँगन मेरे 
तुलसी की तरह 
सात्विक कर रही है 
मेरा घर 
द्वार भी 

एक दीया
दीप्त कर आई हो 
मेरे मंदिर में 
अभिमंत्रित कर 
प्रज्ज्वलित है  
सदभावना की तरह 
उसकी लौ 
मेरे अन्दर 
बाहर भी 

एक एहसास 
छोड़ आई हो 
हर कोने में 
भरा भरा सा है 
हर कोना 
सान्निध्य की तरह
जीवंत  है 
तुम्हारी उपस्थिति 
प्रत्येक  पल
हर  क्षण 

एक गीत 
गुनगुना आई हो 
मेरे जीवन में 
संगीत बज उठा है 
हर साज पर 
झंकृत है 
मन का हर तार 
तुम्हारे गीत के बोल 
सदैव गुनगुनाती हैं
मेरी आँखें  
अधर भी . 

Monday, March 28, 2011

नींद तुम्हारी



आँखों में हो  
किसे बसाये 
नींद को जो 
न आई नींद. 

सपना है  या 
कोई हकीकत 
जिसने चुराई 
तुम्हारी नींद 

नजरों में उनको 
भर लेते 
आँखों ही से 
कुछ कह देते 

नींद बावरी 
रही भटकती 
बांहों में तनिक 
भर लेते 

रात रह गई 
संग तुम्हारे 
भर दी खुमारी 
अंग तुम्हारे 

उसने सुन ली 
दिल की धड़कन
बढ़ गई है 
उसकी उलझन 

करवट बदल 
यह सोच रही 
किस ओर चलूँ  
पथ खोज रही 

नींद तुम्हारी 
मीठी मीठी 
आएगी फिर 
सपने लेकर

करना उसका 
इन्तजार 
आँखों में भरना 
बार बार .   

Thursday, March 24, 2011

बूँद भर ख़ुशी







बूँद भर ख़ुशी 
लौटाती है प्राण
निस्तेज देह  में 
शरशैया से 

बूँद भर ख़ुशी 
भर देती है उजास 
जब आती है 
तुम्हारी कुशल  

बूँद भर ख़ुशी 
ले आती है उल्लास 
जब नियत होता है दिन
तुम्हारे आने का 

बूँद भर ख़ुशी 
हर लेती है संताप 
जब करता हूँ कुछ 
 मैं तुम्हारे लिए

बूँद भर ख़ुशी 
भर देती है सपने 
जब हौले से कहती हो 
चाँद निकल आया 

बूँद भर ख़ुशी 
पास ले आती है लक्ष्य  
जब आता  हूँ मैं
तुम्हारे पद चिन्हों पर

बूँद भर ख़ुशी 
भर देती है उमंग 
जब देखता हूँ मैं 
तुम्हें मुस्कुराते हुए 

बूँद भर ख़ुशी 
भर देती  हर घाव 
जब करता हूँ महसूस 
तुम्हारा स्निग्ध सान्निध्य  .

Tuesday, March 22, 2011

व्यर्थ हूँ मैं




 
व्यर्थ हूँ मैं 
यदि नहीं दे पाऊं 
सूर्य को अर्ध्य 
तुम्हारे लिए 

व्यर्थ हूँ मैं 
यदि न भर दू 
अरुणिमा भोर की 
तुम्हारे मुख पर 

व्यर्थ हूँ मैं 
यदि न हर लूं 
अवसाद सारे 
तुम्हारे हिस्से के 

व्यर्थ हूँ मैं 
यदि न जान लूं 
हलचल भारी 
तुम्हारे ह्रदय की 

व्यर्थ हूँ मैं 
यदि न पढ़ लूं 
बोल अबोले 
तुम्हारी आँखों के 

व्यर्थ हूँ मैं 
यदि न गढ़ दूं 
एक प्रतिमान  
स्नेह और विश्वास का 

व्यर्थ हूँ मैं 
यदि न रच दूं 
रचना एक 
तुम्हारे मन अनुकूल 

व्यर्थ हूँ मैं 
यदि न भर दूं 
भाव मनोरम 
तुम्हारी कविता में. 

Monday, March 21, 2011

राग रंग में हुई गुनगुन













लाली लेकर गुलाल आया 
गालों पर मेरे गया ठहर 
वासंती करने की हठ लाया 
करता प्रमोद आठों प्रहर

लाल, हरा, नीला , पीला 
ठिठोली करते एक दूजे से  
किसका रंग चटक है गीला  
पूछ रहे हैं सब मुझ ही  से

कौन रहेगा कितने दिन 
रंगों की है कौन बिसात 
धूमिल कौन रहे निस दिन 
मन बसी है किसकी बात 


रंगों को है नहीं खबर 
रंगत जो मुझ पर छाई
टेसू के फूलों से ले ली  
सुर्खी वह मेरे मन भाई

लिपट लिपट एक दूजे से 
खोते  जाते अपना रंग
उसका रंग चढ़ा खुद पर 
उसको रंग जाते अपने रंग 


गया वसंत पतझड़ आया 
खिली  कोपलें नई नई  
मंजरियों का झुरमुट छाया 
लेकर उम्मीदें कई कई   

बीत गया सारा फागुन 
रंगों पर ख़ामोशी छाई 
राग रंग में हुई गुनगुन
दोनों ने मिल तान लगाई .  

Thursday, March 17, 2011

रंग सलोना दे दो मुझको





पूर्ण  हूँ मैं जो
प्रिय का संग
चन्द्र सूर्य सब
भरते सत रंग

नभ में नील
धरा धानी
खेतो में बाली
सरिता का  पानी

सजी धजी
गोरी ठुमके
चूनर उडाए
हवा थमके  


सरसों फूली 
महक महकाए 
उड़ता गुलाल
क्या साजन आये 

भांग की मटकी 
घर घर डोले 
फाग बयार 
सब बंधन खोले 

आये सांवरिया 
भर पिचकारी 
कहाँ छिपोगी 
राधा रानी 

अपने रंग में 
रंग दूं तुमको 
रंग सलोना 
दे दो मुझको .

Tuesday, March 15, 2011

गुलाब
















गुलाब 
अलग अलग रंग और 
गंध लिए 
भिन्न भिन्न क्यारियों और 
जलवायु से 
चले आते हैं 
फूलों की मण्डी में

जहाँ लगाई जाती है 
इनकी बोली और कीमत 
सुगंध और संवेदनाओं को परे रखकर
कितने चाव से उगाया था 
माली ने इसे 
संवाद की अथक  
क्षमता लिए 
आज पड़ा है भावशून्य 
बीच बाजार 

खरीदार आते हैं 
करते हैं मोलभाव 
दरक जाता है कुछ 
भीतर गुलाब के 
चाहते हैं लेना पर 
कम करते हैं भाव  
और मुरझा जाती है 
एक पंखुड़ी  

सोच में है फूल 
होगा क्या 
सजाऊंगा किसका घरोंदा  
बनूगां किसके गेसुओं का हीरा 
धड्कूंगा किसी हीर के हाथों में 
या मनाऊंगा मातम
किसी के टूटे दिल पर 

समाई  है जिसमें 
प्रीत की ऊष्मा 
देखते ही खिल उठता है
हर हारा हुआ चेहरा भी  
पर लगा दिया जाता है 
ठंडी बर्फ में 
ताकि जी  सके  ज्यादा 
मारकर अपना मन .

देखते ही गुलाब 
हर्षित होता है तन मन 
पर सर्द में लगा देख 
जम गया है उत्साह 
हो आई है सहानुभूति 
प्रेम स्नेह और शुभकामना 
के प्रतीक 
गुलाब से .   

Thursday, March 10, 2011

जड़




मोहित करता पुष्प सुगन्धित 
या घनी छाँव सा हो बरगद 
मीठे फल से लदा आनंदित 
शीतल हवा सा  हो गदगद 

कंदमूल से झुके तरू बल  
पथिकों को बहुत लुभाते है 
लहराते महकाते कुसुम दल
दिल का सब हाल बताते  है

माथे पर रखकर पाषाण 
पाताल से अमृत ले आऊं 
धरा के गर्भ में रहूँ छिपी 
हर कली को पोषण दे आऊं 

पृथ्वी में जब पड़ा बीज 
फैला दी मैंने बाहें अपनी  
ममता से उसे सींच सींच 
अंकुर को दी छवि अपनी

नन्हा सा पौधा भेज दिया 
स्वयं अपनी राह बनाने को
तूफानों से मत घबराना 
मैं हूँ अस्तित्व बचाने को 

आयें जाएँ जितने मौसम 
हवा का रुख तुम पहचानो 
बदल लो चाहे कितने रूप 
मुझ से जुड़े हो यह जानो 

अवसान  नहीं आने दूगी
सुवासित पुष्पित खिले रहो  
सृष्टि की आन बचा लूंगी 
तुम बस जड़ से जुड़े रहो  .  

Tuesday, March 8, 2011

प्रेम और ईश्वर

चित्र साभार गूगल 


कहते हैं
प्रेम का दूसरा रूप
है ईश्वर 
और उसकी आराधना 

ईश्वर का कोई 
रूप नहीं होता 
आकार नहीं होता
निराकार है 

लेकिन प्रेम के 
अनेक रूप हैं 
कभी बिंदिया सा गोल 
सूरज और चाँद 
जैसा लुभावन 
कभी परांठे जैसा 
गोल और नरम 

प्रीत की ऊष्मा में 
तपा हुआ 
कभी गुलाब की 
सूरत लिए 
सुर्ख लाल 
वेणी में सजी        
इठलाती मोगरे की कली 

कभी खनखनाता कंगन 
करता कलाई का आलिंगन 
नहीं चाहता होना अलग 
एक पल को भी 
टूट कर बिखर जाने तक 

कभी चाशनी से मीठा 
कभी इमली से खट्टा 
कभी कागज की 
शक्ल लिए 
एक सुन्दर नज्म 
कभी भावपूर्ण अल्फाज लिए 
मधुर गुनगुन गीत 

कभी बस जाता है 
आँखों में तुम्हारी 
कभी आँखें दिखाता है 
अधरों पर मेरी 
हँसता है कभी 
चंचल चपल 
लुभाता है कभी 

तुमने देखें  है कभी 
ईश्वर के इतने रूप 
जितने है प्रेम के 
फिर कहो 
कैसे हैं दोनों 
बराबर 

Friday, March 4, 2011

क्षितिज




धरती इक माँ सी मनभाई
पिता सा अम्बर का विस्तार
सृष्टि सारी इन्हीं में समाई
जग के हैं ये दो आधार

अदभुत कृत्य हैं  विधना के
रचा जिसने सारा संसार
दोनों पूरक एक दूजे के
समझाते जीवन का सार

बहस हो जाती गाहे बगाहे
दोनों में है कौन महान
आकाश पसारे अपनी बाहें
धरा  कहे हूँ मैं बलवान

नीलगगन सा छत्र अपार
देता सबको सुख छाया है
पृथ्वी देती ठोस आधार
उससे ही जीवन आया है

जननी के आँचल सी भूमि
सृष्टा बनी है प्रकृति की
नभ देता सहयोग मनोरम
पूर्णता करता धरती की

एक दूजे के बिना अधूरे
साथी है सुख दुःख के
दोनों ही  करते प्रतीक्षा
आयेंगे पल राग रंग के

झुक कर करे प्रणय निवेदन
कर लो स्वीकार सखा मेरी
मिलन हमारा फिर होगा
देखूँगा राह क्षितिज पर तेरी 
गोधूलि पर मिलेंगे जब
दिल का हाल बता देना
भेजूंगा पावस के मोती 
उपहार समझ  रख लेना.