Thursday, April 28, 2011

दर्द


 
शीघ्र आने को कह गए 
अब तक लौट न आये तुम 
वसंत अनगिन बीत गए 
कब तक राह निहारें हम 

कोयल कूक कूक थकती 
पपीहा भी हो गया मौन 
काक न लाया कोई पाती 
               गौरैया पूछे आएगा कौन                

नाम तुम्हारा रटे सुगना 
हर आहट पर आँखें खोल 
खनखन से दूर हुआ कंगना 
चुक गए हैं उसके बोल  

विरहणी की है पीर भली 
है कोई तो संग निभाने को 
बरसे सावन या झडे पतझड़ 
ये सब हैं दुःख बतियाने को 

ममता की मूरत को देखो 
है पुत्र विरह में बौराई
ह्रदय कसकता है उसका 
वह जाने प्रेम की गहराई  

मुझसे ज्यादा दीन दुखी 
दर्द मेरा बौना उससे 
घर की दीवारें खोज रहीं 
उज्जवल हर कोना उससे    

दीपक हो जिस जीवन का 
उनकी तो सुधि ले लेना 
रीतापन हरना आँचल का
नैनों में उजास भरना  .  
 

Wednesday, April 27, 2011

दिखाओ ना सूरज




काजल की कोठरी
जन्मस्थली है मेरी 
धरती और आसमान 
मेरा घर संसार 

अमावस को माना
पूर्णिमा शरद की 
काले  कटोरों में 
थी सुधा सपनों की 

पूरे हुए कुछ 
कुछ को किनारा 
डूबे कुछ मझधार 
कईयों का वारा न्यारा 

बैठें है आस में कई 
आये कोई उबार ले 
प्रतीक्षा में आँख भींचे 
कोई तो संवार दे 

कुछ से तो 
की बड़ी मनुहार 
ना खोलो पलक 
जाओगे खुद को हार 

माने ना ये खुदगर्ज 
दामन छुड़ा लिया 
जाने को दूर हमसे 
उनको बुला लिया 

दिखाओ ना सूरज इन्हें
सह नहीं पायेंगे 
पंख झुलस जो गए 
फिर उड़ ना पायेंगे .

Monday, April 25, 2011

तुम्हारा नाम लेकर







पथ भरा कांटे या धूल  
बढ़ चलूंगी मैं संभल
शूल भी बनेंगे फूल  
चलकर जाउंगी निकल 

मिलेंगे सब राही नये
लक्ष्य भी होगा नया 
साथी सब छूट गए 
मार्ग भी होगा नया 

कैसे बीतेंगे वे पल 
जो न होगे तुम वहां
मुड़कर देखूँगी विकल 
मैं रहूंगी फिर कहाँ 

स्रोत छूटा साहस का
अवलंबन और संबल 
संग पीछे प्रेरणा का 
नैनों में भरे कम्पन 

डगमगाई हूँ मगर 
समझ कुछ आता नहीं 
अनजानी सी एक डगर 
छोर दिखलाता नहीं 

भटक जाऊं यदि कभी 
दीप दिखलाना मुझे 
थक बैठूं यदि वहीँ 
ऊष्मा दे जाना मुझे   

जब कभी अवकाश हो 
स्मृतियों में विचर आना   
जब मुझे अवसाद हो 
सपने कुछ दे जाना 

चल पड़ी हूँ मैं एकल  
राह को पहचान देकर 
भर लिया पग में बल 
तुम्हारा नाम लेकर . 

Wednesday, April 20, 2011

छुईमुई


पूछे सखियाँ मन की बात
कहो प्रिये क्या है राज  
कहने में लाज आती  
मैं छुईमुई हो जाती 

दर्पण में  निहारती 
स्वयं को संवारती 
देख उसमें उनकी छवि 
मैं छुईमुई हो जाती 

अलकें उलझ जाती 
कैसे मैं सुलझाती 
हर लट याद दिलाती 
मैं छुईमुई हो जाती 

गालों की लाली 
और सुर्ख हो जाती
खुशबू तुम्हारी महकाती 
मैं छुईमुई हो जाती 

प्रतीक्षा में रहती 

नजरें राह तकती 
आती उनकी पाती
मैं छुईमुई हो जाती

आने की आहट 
मन को हर्षाती 
धड़कन बढ़ जाती 
मैं छुईमुई हो जाती 

बदरी गहराती काली
गर्जना मेघ की डराती
बरखा मन भिगो जाती 
मैं छुईमुई हो जाती .

Monday, April 18, 2011

फिर ना होगा अपना मिलन



 
नेह से तुमने कंठ लगाया
तपता ह्रदय बहुत जुडाया
खुशबू तुम्हारी उर में समाई 
सुप्त स्वपन  ने ली अंगड़ाई .  
 
मन में उठी तरंग हिलोर
भिगो गई सब पोर पोर 
जिव्हा स्तब्ध शब्द खो गए 
सूखा कंठ जड़ हो गए . 
 
नीर का दरिया तोड़े बंध
सूखी धरती हुई  बंजर
दिन बीते जैसे तैसे 
रातें हो जाये खंजर . 
 
थम गया जैसे कालचक्र 
भाग्य दृष्टि ना हो वक्र 
पथराये नैना ना झपके  
भर लूं इनमें जी भरके . 
 
कहाँ रहे प्रिय कौन देस 
तुम्हें हमारी याद ना आई  
तुम बिन कैसे रैना बीते
उन लम्हों की कैसे भरपाई .
 
एक बार जो चित्त बिठाया 
जीवन भर का प्रसाद पाया 
प्यासे नैनों में जो समाया  
पुलकित मन अति हरषाया .
 
परदेस ना जाने देंगे अब
काली घटाओं का बंधन 
छोड़ गए जो अब मितवा
फिर ना होगा अपना मिलन .  
 

Friday, April 15, 2011

अश्रुधार






नदी गाये ले अलाप 
बही जाए अश्रुधार 
लहर उठे करे प्रलाप
अकेली नाव मझधार    

चंचलता मौन इधर 
ह्रदय करे हाहाकार
नौका जायेगी बिखर 
नाविक बिन पतवार 

पानी में उफान है 
दूर बहुत तट खड़े 
गति में बढ़ता वेग है 
निर्जन में जा पड़े   

जल की तरंग  सब 
लेकर जायेगी किधर 
मूक बन कहेंगे तब 
हमको जाना है उधर 

निर्मल धारा  कितनी 
खारा  बन जायेगी 
नियति चाहे जितनी 
उतनी बह पाएगी 

नदी की सुने कौन 
चाहा जिधर मोड़ा उधर 
कलकल बहती मौन 
जाने न जाना है किधर   

नैया  रोये जार जार 
आंसू  करते मनुहार 
पुकारती है बार बार 
कहाँ गए खेवनहार .  

Wednesday, April 13, 2011

आइना








दर्पण के सम्मुख
राधा नैन टिकाये 
छवि देखी स्वमुख 
श्याम नजर आये  

देख अचंभित  
समझ न आये
नजरें विस्मित  
कान्हा समाये 

कृष्ण  दीवानी 
हुई बावरिया
छाई वीरानी 
गए सांवरिया 

बांसुरी की धुन 
ह्रदय लिए जाए 
प्रभु तान  सुन 
रूका न जाए 

बाहर मैं खोजूं
बसे मेरे भीतर 
जोर से  पुकारूँ 
नटखट रहे अन्दर 

कृष्ण वर्ण राधिका 
राधामय कन्हाई 
गोपी बनी गायिका 
महिमा उनकी गाई

आइना कहे 
सच ही कहना 
नैनन नीर बहे  
गए कहाँ सजना .   
 

Monday, April 11, 2011

दहलीज







ड्योढ़ी  पर खड़ी 
करती हूँ  मनन 
आशाएं जो जुडी 
उनका न हो हनन 

छूटा है जो पीछे 
बाबा का आँगन 
दुलार मुझे खींचे 
बारहमासी फागुन

एक अल्हड मासूम 
सरिता सा जीवन
चिड़िया हुई गुमसुम 
पुकारता है यौवन 

पार हुई देहरी 
छूटेगा माँ का आँचल
बचपन अलबेला 
हो जाएगा अकेला 

बंधेगी डोर जिससे 
चांदनी भरूँगी 
सुख होगा उसीसे 
प्रीत मैं करूंगी 

चौखट नहीं द्वार की 
इस पार है हंसी 
जीवन  दहलीज की
उस पार है ख़ुशी    

रिश्ता खोये नहीं 
मान मनुहार का 
हर पल फले वहीँ 
प्यार विश्वास का . 
 

Friday, April 8, 2011

नूतन




सब ओर छाया 
नवीन उल्लास 
ऋतुराज ने किया 
कोई परिहास 

आम में मंजर
कटहल में फूल
धरा चाहे बंजर 
हरीतिमा रही झूल
पायल की रुनझुन
गोरी के पाँव
गाये गीत गुनगुन 
पीपल की  छाँव  

धीमे सुर में
कोयल गाती  
मीठे स्वर में 
ताप हर जाती 

नई उमंग 
प्रीत है नई 
मन में तरंग 
आशाएं कई 

ह्रदय हुलसी 
सपनों की लड़ी
आँगन तुलसी 
जोडती कड़ी 

पतझड़ हारा 
आई नव कोपल 
परिवेश सारा 
नूतन कोमल . 

Wednesday, April 6, 2011

मेरे पथ





जननी जनक हुए विव्हल 
आँगन में गूंजी किलकारी 
माँ की ममता हुई विकल 
सुख की भर दी पिचकारी 

कच्ची मिटटी से गढ़ दी 
एक सलोनी मूरत सी 
आशाओं की गठरी रख दी 
दिखती सूरत मेरी सी 

रोती यदि वे रो देते 
मैं हंसती वो खुश होते 
जरा मलिनता मुख आते   
वे अपना आपा  खोते 

देख मुझे आँखें भरते 
आह मेरी सब हर लेते 
स्वप्न सभी मुझमें तिरते 
साहस और संबल देते 

पंखों ने आज उड़ान भरी 
सपनो ने गति पाई है 
उम्मीदों को उनकी परी
सम्मुख लेकर आई है 

मेरे पथ मुझे राह दिखा 
चिंता सब  हर लूं उनकी 
विधना का हो कोई लिखा 
पुष्प सजाऊँ चाह में उनकी . 

Monday, April 4, 2011

प्रतीक्षा



क्यों इतनी बैचैनी लाती
प्रतीक्षा की निर्मम घड़ियाँ
चाहने से भी टूट न पाती
अनुराग भरी निर्मल लड़ियाँ   


क्या होती है एक  परीक्षा 
धीर भरे आकुल मन की 
या कि है कोई पैमाना 
माप सके ऊँचाई प्रेम की 


क्या इसमें श्रद्धा गहरी 
चिन्ता का सैलाब भरा
कुशल से होंगे मीत मेरे 
अँखियाँ चाहे देखूं जरा 

क्यों इसमें दूरी ज्यादा 
पल लगते युग जैसे 
लेकिन जब वो आ जाते 
समय लगाये पंख जैसे 

क्या होता है मौका एक
चिंतन मनन समीक्षा का
कहाँ कमी है चूक देख 
करूँ सुधार अपेक्षा का  

कितना विद्यमान है सार
रहकर दूर भी पास लगे
बरसों बरस हो जाएँ पार 
कल ही की तो बात लगे

अवलंबन की कड़ियाँ लम्बी 
दिन दूनी  बढती जाएँ 
प्रतीक्षा जितनी भी दम्भी  
आस में उम्र गुजर जाए .