ड्योढ़ी पर खड़ी
करती हूँ मनन
आशाएं जो जुडी
उनका न हो हनन
छूटा है जो पीछे
बाबा का आँगन
दुलार मुझे खींचे
बारहमासी फागुन
एक अल्हड मासूम
सरिता सा जीवन
चिड़िया हुई गुमसुम
पुकारता है यौवन
पार हुई देहरी
छूटेगा माँ का आँचल
बचपन अलबेला
हो जाएगा अकेला
बंधेगी डोर जिससे
चांदनी भरूँगी
सुख होगा उसीसे
प्रीत मैं करूंगी
चौखट नहीं द्वार की
इस पार है हंसी
जीवन दहलीज की
उस पार है ख़ुशी
रिश्ता खोये नहीं
मान मनुहार का
हर पल फले वहीँ
प्यार विश्वास का .
बहुत ही अच्छी कविता लिखी है आपने काबिलेतारीफ बेहतरीन
ReplyDeleteहमेशा की तरह ये पोस्ट भी बेह्तरीन है
ReplyDeleteकुछ लाइने दिल के बडे करीब से गुज़र गई....
अच्छी प्रस्तुति ...
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ReplyDeleteमन में आशा की संचार करती
ReplyDeleteयौवन से बचपन की और इंगित करती सुन्दर रचना के लिए बधाई!
उत्साह संचारित करती कविता।
ReplyDeletebahut khub!
ReplyDeleteअच्छी कविता ,, बेहतरीन
ReplyDeleteरिश्ता खोये नहीं
ReplyDeleteमान मनुहार का
हर पल फले वहीँ
प्यार विश्वास का .
रिश्तों की गुत्थियों को सुलझाती भावों से परिपूर्ण अच्छी कविता.
बंधेगी डोर जिससे
ReplyDeleteचांदनी भरूँगी
सुख होगा उसीसे
प्रीत मैं करूंगी
Kitne pyare alfaaz hain!
neh se bhari ek khoobsurat rachna.
ReplyDeleteshubhkamnayen
बहुत ही बढ़िया ...सुंदर, सजीव, सकारात्मक भाव लिए है आपकी रचना ....
ReplyDeleteमन में सुख और आशा का संचार करती सुन्दर रचना ! बहुत खूब !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा आपने.रामनवमी की हार्दिक शुभकामनायें.
ReplyDeleteLajabaab..
ReplyDeletebahut sunder sapno, ummeedo ke ehsaso se saji manbhawan rachna..ek dehri se dusri dehri par pair rakhne wali sabhi behno ki aisi kaamnaye poorn ho...yahi dua hai.
ReplyDeleteरामपति जी रोबेर्ट फ्रोस्ट की कवितायें पढ़िए आप.. देखेंगी कि आपकी और उनकी कविता की संरचना में बहुत समानता है... जिस विषय पर आपकी कविता है उस से ही मिलते जुलते विषय पर उनकी भी एक कविता है 'THE LOCKLESS DOOR' .. दोनों कविता का रैम पैटर्न " a b a b " का है.. मीटर में भी समानता है.. पूरी कविता पढ़िए...
ReplyDeleteTHE LOCKLESS DOOR
It went many years,
But at last came a knock,
And I though of the door
With no lock to lock.
I blew out the light,
I tip-toed the floor,
And raised both hands
In prayer to the door.
But the knock came again.
My window was wide;
I climbed on the sill
And descended outside.
Back over the sill
I bade a 'Come in'
To whatever the knock
At the door may have been.
So at a knock
I emptied my cage
To hide in the world
And alter with age.
बंधेगी डोर जिससे
ReplyDeleteचांदनी भरूँगी
सुख होगा उसीसे
प्रीत मैं करूंगी
Kya baat hai madam je, bhaut ache likhe hai