दग्ध
कर देने वाले
व्यंग वाण
सुनकर भी
चुप हूँ मैं ।
उपहास उड़ाते
मित्र वृन्द
उपेक्षा
तिरस्कार
करते प्रियजन
पर मौन हूँ मैं ।
उँगलियाँ
जो उठ रही हैं
मेरी ओर
देखकर भी
निर्लिप्त हूँ मैं ।
मुझमें
स्पंदित है ह्रदय
अनगिनत
नश्तर हैं जिस पर
सांसे
चल रही हैं
धौंकनी की तरह
पर शांत हूँ मैं ।
दुःख
होता है पाकर
अवहेलना
अपमान
अनर्गल बातें
देती हैं कष्ट
पर तटस्थ हूँ मैं ।
सुगबुगाते है
जब भी
स्वपन
सुला देती हूँ उन्हें
थपथपाकर ।
सिर उठाती हैं
जब भी
सुसुप्त इच्छाएं
चुप करा देती हूँ
उन्हें आँखों से ।
फिर भी
मुझे नहीं
कोई शिकायत
किसी से
खुश हूँ मैं ।
पर ईश्वर नहीं मैं ।
achchi rachna...badhai.
ReplyDeleteबेहतरीन्……………सच कब तक और कितना सह सकता है इंसान आखिर है तो इंसान ही ना…………बहुत सुन्दर्।
ReplyDelete"फिर भी
ReplyDeleteमुझे नहीं
कोई शिकायत
किसी से
खुश हूँ मैं ।
पर ईश्वर नहीं मैं ।"
बहुत सुन्दर रचना । इन्सान की सहनशीलता का उदाहरण । बधाई ।
अभिव्यक्ति का यह अंदाज निराला है. आनंद आया पढ़कर.
ReplyDeleteकभी 'आदत.. मुस्कुराने की' पर भी पधारें !!
ReplyDeletenew post par
.............मेरी प्यारी बहना ?
मुझमें
ReplyDeleteस्पंदित है ह्रदय
अनगिनत
नश्तर हैं जिस पर
सांसे
चल रही हैं
धौंकनी की तरह
पर शांत हूँ मैं ।
.... shant hi rahne do , jwalamukhi ko shant hi rahne do
मेरे विचार आपके विचारों से शत प्रतिशत मेल खाते हैं, पर भगवान को भी कभी तो गुस्सा आ ही जाता है. "पर ईश्वर नहीं मैं" आपकी इस बात में एक बात और जोड़ना चाहूंगी " और होना भी नहीं चाहती"
ReplyDeleteइंसान की भावनाएं होती हैं। उसकी अभियक्ति मानवीय ही तो होंगी।
ReplyDelete