Monday, October 25, 2010

ईश्वर नहीं मैं

दग्ध
कर देने वाले
व्यंग वाण
सुनकर भी
चुप हूँ मैं ।

उपहास उड़ाते
मित्र वृन्द
उपेक्षा
तिरस्कार
करते प्रियजन
पर मौन हूँ मैं ।

उँगलियाँ
जो उठ रही हैं
मेरी ओर
देखकर भी
निर्लिप्त हूँ मैं ।

मुझमें
स्पंदित है ह्रदय
अनगिनत
नश्तर हैं जिस पर
सांसे
चल रही हैं
धौंकनी की तरह
पर शांत हूँ मैं ।

दुःख
होता है पाकर
अवहेलना
अपमान
अनर्गल बातें
देती हैं कष्ट
पर तटस्थ हूँ मैं ।

सुगबुगाते है
जब भी
स्वपन
सुला देती हूँ उन्हें
थपथपाकर ।

सिर उठाती हैं
जब भी
सुसुप्त इच्छाएं
चुप करा देती हूँ
उन्हें आँखों से ।

फिर भी
मुझे नहीं
कोई शिकायत
किसी से
खुश हूँ मैं ।
पर ईश्वर नहीं मैं ।

8 comments:

  1. बेहतरीन्……………सच कब तक और कितना सह सकता है इंसान आखिर है तो इंसान ही ना…………बहुत सुन्दर्।

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  2. "फिर भी
    मुझे नहीं
    कोई शिकायत
    किसी से
    खुश हूँ मैं ।
    पर ईश्वर नहीं मैं ।"

    बहुत सुन्दर रचना । इन्सान की सहनशीलता का उदाहरण । बधाई ।

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  3. अभिव्यक्ति का यह अंदाज निराला है. आनंद आया पढ़कर.

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  4. कभी 'आदत.. मुस्कुराने की' पर भी पधारें !!
    new post par
    .............मेरी प्यारी बहना ?

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  5. मुझमें
    स्पंदित है ह्रदय
    अनगिनत
    नश्तर हैं जिस पर
    सांसे
    चल रही हैं
    धौंकनी की तरह
    पर शांत हूँ मैं ।
    .... shant hi rahne do , jwalamukhi ko shant hi rahne do

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  6. मेरे विचार आपके विचारों से शत प्रतिशत मेल खाते हैं, पर भगवान को भी कभी तो गुस्सा आ ही जाता है. "पर ईश्वर नहीं मैं" आपकी इस बात में एक बात और जोड़ना चाहूंगी " और होना भी नहीं चाहती"

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  7. इंसान की भावनाएं होती हैं। उसकी अभियक्ति मानवीय ही तो होंगी।

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