संत्रास पति ने दिया उसे
पाषाण हुई वह बेचारी
कलंक भाग्य ने दिया उसे ।
पाषाण हुई वह बेचारी
कलंक भाग्य ने दिया उसे ।
नर समाज का विकृत रूप
साध्वी ने कैसे गरल पिया
किससे गुहार कौन अनुरूप
जीवन शिला सा कैसे जिया ।
दुर्दशा देखी एक सती की
शर्मसार था तेजस रूप
त्रेता युग की छवि धूमिल थी
वीभत्स कृत्य पर सब थे चुप ।
तपोबल का अभिमान न था
था अनादर नारी शक्ति का
निर्मूल आशंका का संशय था
था घटता वर्चस्व पुरुष का ।
देवी कहकर मंडित करते
फिर क्योंकर उनको शाप दिया
विश्वास दिखा गरिमा रखते
अस्तित्व रौंद अभिशाप दिया ।
निज आहुति दी पत्थर बन
भस्म हुआ ऋषि का सम्मान
दम्भी पौरुष की यातना सुन
था घोर अनैतिक और अपमान ।
शिलाखंड था प्रतीक्षा में
कब होगा मेरा उद्धार
मोक्ष मिलेगा सद्गति में
चरण रज देंगे तारणहार ।
टूटा नहीं शाप संलिप्त
हर स्त्री लगती शापित है
बैकुंठ से निकलो प्रभु अवतरित
अभिशप्त अहिल्या प्रार्थित है ।
टूटा नहीं शाप संलिप्त
ReplyDeleteहर स्त्री लगती शापित है
बैकुंठ से निकलो प्रभु अवतरित
अभिशप्त अहिल्या प्रार्थित है ।
bahut hi achhi rachna
कब तक अहिल्या शापित रहेगी और राम की ओर देखेगी ……………आज की अहिल्या को खुद ही मुक्त होना पडेगा वरना समाज का कोढ उसे कहीं का नही छोडेगा।
ReplyDeleteसबसे प्यारी लाइन ......
ReplyDeleteनर समाज का विकृत रूप
साध्वी ने कैसे गरल पिया
किससे गुहार कौन अनुरूप
जीवन शिला सा कैसे जिया ।
देवी कहकर मंडित करते
ReplyDeleteफिर क्योंकर उनको शाप दिया
विश्वास दिखा गरिमा रखते
अस्तित्व रौंद अभिशाप दिया ।
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ।
एक अहिल्या थी नारी
ReplyDeleteसंत्रास पति ने दिया उसे
पाषाण हुई वह बेचारी
कलंक भाग्य ने दिया उसे ।
bahut kaha jaa sakta hai , ek khand kaavya likha jaa sakta hai . sunder
saaduwad
आदिकवि श्री वाल्मीकि रचित रामायण के अष्टचत्वरिंशः सर्गः (48वे सर्ग) के श्लोक क्रमांक 17-19 के अनुसार स्पष्ट है कि अहल्या ने इन्द्र को पहचानने के पश्चात् ही अपनी स्वीकृति दी थी। देखियेः
ReplyDeleteतस्यान्तरं विदित्वा च सहस्त्राक्षः शचीपतिः।
मुनिवेषधरो भूत्वा अहल्यामिदमब्रवीत्॥17॥
एक दिन जब महर्षि गौतम आश्रम में नहीं थे तब उपयुक्त अवसर जानकर शचीपति इन्द्र मुनिवेष धारण कर वहाँ आये और अहल्या से बोले -
ऋतुकालं प्रतीक्षन्ते नार्थिनः सुसमाहिते।
संगमं त्वहमिच्छामि त्वया सह सुमध्यमे॥18॥
"रति की कामना रखने वाले प्रार्थी पुरुष ऋतुकाल की प्रतीक्षा नहीं करते। हे सुन्दर कटिप्रदेश वाली (सुन्दरी)! मैं तुम्हारे साथ समागम करना चाहता हूँ।"
मुनिवेषं सहस्त्राक्षं विज्ञाय रघुनन्दन।
मतिं चकार दुर्मेधा देवराजकुतुहलात्॥19॥
(इस प्रकार रामचन्द्र जी को कथा सुनाते हुये ऋषि विश्वामित्र ने कहा,) "हे रघुनन्दन! मुनिवेष धारण कर आये हुये इन्द्र को पहचान कर भी उस मतिभ्रष्ट दुर्बुद्धि नारी ने कौतूहलवश (कि देवराज इन्द्र मुझसे प्रणययाचना कर रहे हैं) समागम का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
नर समाज का विकृत रूप
ReplyDeleteसाध्वी ने कैसे गरल पिया
किससे गुहार कौन अनुरूप
जीवन शिला सा कैसे जिया ।
आज तो ब्लॉग में बहुत कुछ अलग नया सा लग रहा है पर कविता वही हमेशा की तरह बेमिसाल
निज आहुति दी पत्थर बन
ReplyDeleteभस्म हुआ ऋषि का सम्मान
दम्भी पौरुष की यातना सुन
था घोर अनैतिक और अपमान ।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
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ReplyDeleteएक सत्य - जो कल भी था , आज भी है।
सुन्दर प्रस्तुति ।
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टूटा नहीं शाप संलिप्त
ReplyDeleteहर स्त्री लगती शापित है
बैकुंठ से निकलो प्रभु अवतरित
अभिशप्त अहिल्या प्रार्थित है ...
अच्छी प्रस्तुति ...!