जेठ की तपती दुपहरी
धरा थी शुष्क दग्ध
मेघ आये ले सुनहरी
पावस की बूंदे लब्ध
संचार सा होने लगा
जी उठी जीवन मिला
सोया हुआ पंछी जगा
सुन पुकार कुमुद खिला
अंगार हो रही धरती
धैर्य थी धारण किए
दहकती ज्वाला गिरती
अडिगता का प्रण लिए
मुरझा गए पुष्प तरू
मोर मैना थे उदास
सोचती थी क्या करूँ
जाए बुझ इसकी प्यास
सूख गए नदी नार
ताल तलैया गए रीत
मछलियाँ पड़ी कगार
गाये कौन सरस गीत
टिमटिम उदासी का दीया
आई ये कैसी रवानी
हल ने मुख फेर लिया
पगडण्डी छाई वीरानी
घन छाये घनघोर बरस
तृप्ति का उपहार लिए
इन्द्रधनुष दे जाओ दरस
रंगों का मनुहार लिए
वाह वाह बहुत सुन्दर भावाव्यक्ति।
ReplyDeleteअंगार हो रही धरती
ReplyDeleteधैर्य थी धारण किए
दहकती ज्वाला गिरती
अडिगता का प्रण लिए
यह हैं असली पंक्तियाँ आगे कुछ नहीं कहूँगा .........
ग्रीष्मदग्ध अस्तित्व को फुहारें।
ReplyDeleteसुन्दर भावाव्यक्ति अभिव्यक्ति का यह अंदाज निराला है... आनंद आया पढ़कर
ReplyDeleteनमस्कार जी,
ReplyDeleteये कविता बहुत पसंद आयी है,