Tuesday, August 16, 2011

घन छाये
















जेठ की तपती दुपहरी 
धरा थी शुष्क दग्ध 
मेघ आये ले सुनहरी 
पावस की बूंदे लब्ध 

संचार सा होने लगा
जी उठी जीवन मिला 
सोया हुआ पंछी जगा 
सुन पुकार कुमुद खिला

अंगार हो  रही धरती 
धैर्य थी धारण किए 
दहकती ज्वाला गिरती
अडिगता का प्रण लिए 

मुरझा गए पुष्प तरू  
मोर मैना थे उदास 
सोचती थी क्या करूँ 
जाए बुझ इसकी प्यास 

सूख गए नदी नार 
ताल तलैया गए रीत 
मछलियाँ पड़ी कगार 
गाये कौन सरस गीत 

टिमटिम उदासी का दीया  
आई ये कैसी रवानी 
हल ने मुख फेर लिया 
पगडण्डी छाई वीरानी    

घन छाये घनघोर बरस 
तृप्ति का उपहार लिए 
इन्द्रधनुष दे जाओ दरस 
रंगों का मनुहार लिए 

5 comments:

  1. वाह वाह बहुत सुन्दर भावाव्यक्ति।

    ReplyDelete
  2. अंगार हो रही धरती
    धैर्य थी धारण किए
    दहकती ज्वाला गिरती
    अडिगता का प्रण लिए
    यह हैं असली पंक्तियाँ आगे कुछ नहीं कहूँगा .........

    ReplyDelete
  3. ग्रीष्मदग्ध अस्तित्व को फुहारें।

    ReplyDelete
  4. सुन्दर भावाव्यक्ति अभिव्यक्ति का यह अंदाज निराला है... आनंद आया पढ़कर

    ReplyDelete
  5. नमस्कार जी,
    ये कविता बहुत पसंद आयी है,

    ReplyDelete