मेरा तुम बिन
रहती हो जैसे
पानी बिन मीन
दूर देस में
पड़ा है जाना
स्मृति बस्ती में
है आना जाना
विस्थापित सा
नहीं लगता मन
सखा प्रिय सा
हुआ है मौन
कौन सवारें
बागी लट को
फिरे दुआरे
ढकती मुख को
कदम भी भूले
अपनी चाल
प्रतीक्षा में कोई
पूछे हाल
निशब्द कलम
न लिखती पाती
उनसे दूरी
बहुत रुलाती
कर्म भूमि है
काम है पूजा
खुद ही बढ़ना
साथ न दूजा .
कर्म भूमि है
ReplyDeleteकाम है पूजा
खुद ही बढ़ना
साथ न दूजा .
बहुत सच कहा है आपने......सशक्त रचना के लिये आभार ।
.. प्रशंसनीय रचना - बधाई
ReplyDeleteसुन्दर भाव्।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भानप्रणव रचना!
ReplyDeleteसुन्दर कविता ||
ReplyDeleteआभार ||
कर्म भूमि है
ReplyDeleteकाम है पूजा
खुद ही बढ़ना
साथ न दूजा.
उम्दा रचना.
कर्म का आधार सुदृढ़ होता है।
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