Friday, August 5, 2011

कर्म भूमि

















बीते जीवन कैसे  
मेरा तुम बिन
रहती हो जैसे 
पानी बिन मीन 

दूर देस में 
पड़ा है जाना 
स्मृति बस्ती में
है आना जाना 

विस्थापित सा 
नहीं लगता मन 
सखा प्रिय सा 
हुआ है मौन 

कौन सवारें 
बागी लट को 
फिरे दुआरे 
ढकती मुख को

कदम भी भूले 
अपनी चाल 
प्रतीक्षा में कोई 
पूछे हाल 

निशब्द कलम 
न लिखती पाती 
उनसे दूरी 
बहुत रुलाती 

कर्म भूमि है
काम है पूजा
खुद ही बढ़ना 
साथ न दूजा . 

7 comments:

  1. कर्म भूमि है
    काम है पूजा
    खुद ही बढ़ना
    साथ न दूजा .
    बहुत सच कहा है आपने......सशक्‍त रचना के लिये आभार ।

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  2. .. प्रशंसनीय रचना - बधाई

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  3. सुन्दर भाव्।

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  4. सुन्दर कविता ||

    आभार ||

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  5. कर्म भूमि है
    काम है पूजा
    खुद ही बढ़ना
    साथ न दूजा.

    उम्दा रचना.

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  6. कर्म का आधार सुदृढ़ होता है।

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