Thursday, December 9, 2010

कलश












कलश प्रीत का लिए चली
आराध्य तुम्हें अर्पण कर दूं
चुन ली कलियाँ खिली खिली
कहो प्रिय समर्पण कर दूं .

सुरा कलश नैन तुम्हारे
वाणी से सुधा बरसती है
देख तुम्हें मन शंख बजे
पतित पावनी बहती है .

भावों की भरकर गागर
नेह छलकता जाता है
बसा वहां विश्वास का सागर
उमड़ता बाहर आता है .

किधर रखूँ अनमोल गगरिया
कहीं छलक न जाए अमृत
प्रेम की प्यासी अपनी नगरिया
रह जाएँ न हम तुम अतृप्त .

आँखों में बसाऊं ह्रदय छिपाऊं
दे दूं आवरण पलकों का
कस्तूरी महके कैसे बताऊँ
ले लूं बहाना अलकों का .

जो तुम मिल जाओ डगर
ये कलश तुम्हारे हाथ धरूं
किससे कहूं व्यथा अपनी
मन की मन ही में रखूँ .

भरा कलश प्रतीक प्रेम का
वैभव का घट भी कहलाता
मैं बन आऊ कलश शगुन का
मन में भाव हर पल आता

10 comments:

  1. इस कविता को इतना धीरे-धीरे पढ़ा....बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !

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  2. जो तुम मिल जाओ डगर
    ये कलश तुम्हारे हाथ धरूं
    किससे कहूं व्यथा अपनी
    मन की मन ही में रखूँ .
    bahut hi badhiyaa

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  3. बहुत पावन सी लगी कविता प्रेम में सरा बोर

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  4. भाव बहुत सुंदर हैं। पर कविता को गेय बनाने के लिए उस पर काम करने की जरूरत है।

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  5. प्रसाद और पंत की याद आ गई इसे पढकर। भाव अत्यंत गहरे हैं। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    विचार-मानवाधिकार, मस्तिष्क और शांति पुरस्कार

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  6. अच्छी कविता के लिए आपका साधुवाद। इस कविता में भावात्मकता और संवेदनात्मकता का सुन्दर समावेश देखने को मिला। आपकी लेखनी इस तरह चलती रहे। भविष्य में भी हमें अच्छी-अच्छी रचनाओं से अवगत कराते रहिए। बेहतरीन कविता को पोस्ट करने के लिए आपको बधाई।

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  7. आदरणीय रामपति जी
    आपके कलश को पढ़ कर निराश हुआ.. विषय कितना सुन्दर लिया था आपने लेकिन थोडा शोध करने में चूक गईं आप... हिन्दू धर्म एवं वैदिक जीवन पद्धति में कलश का बहुत व्यापक अर्थ होता है.. कलश प्रतीक होता है पूर्णता का.. जीवन का.. उर्जा का.. अमरत्व का.. कलश प्रथम बार सागर मंथन में अमृत के साथ आया... आप यदि अपनी कविता को इस विम्ब से लेकर चलती तो कविता वास्तव में कविता बनती.. अंतिम पंक्तियों में अपने कोशिश की है लेकिन तब तक देर हो चुकी थी... इस विषय पर पुनः लिखें .. कविता अच्छी बनेगी..

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  8. मैं बन जाऊं कलश सगुन का ...
    शुभ विचार !
    सुन्दर भाव !

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  9. सुन्दर भाव व्यक्त किये हैं।

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