चित्र साभार गूगल |
जननी सा विस्तार समाया
आँचल जैसी छाँव बसी
गुण अवगुण अंग लगाया
ममता हँसे निर्मल हंसी .
दूब नरम या अड़ा पहाड़
आधार ठोस मैं ही तो हूँ
कलकल नदिया सागर दहाड़
पड़ाव आखिरी मैं ही तो हूँ .
अन्न का दाना कंद मूल
सब जीवों का जीवन सार
हीरा पन्ना मोती मानिक
मुझमें जन्मते लिए आकार .
शांत समंदर है गहराता
अपने भीतर संसार लिए
ज्वालामुखी लावा गरमाता
थोडा सा कुछ क्रोध लिए .
मैं सृष्टा मुझसे सृष्टि
है जीवन में हलचल
करूँ दुलार स्नेह वृष्टि
बढे प्रेम धार पलपल .
मैं वसुंधरा धैर्य घना
माता जननी या पालक
देव-मनुज करें वंदना
सब जीवों की परिचालक .
अति उदार करुणा बहती
अलंकार सब संसाधन
दोहन को ना कहती
हरीतिमा है प्रसाधन .
हरीतिमा है प्रसाधन .
छू लो तुम चाहे गगन
जमीं पर आना ही होगा
संसार झुका रहो मगन
मुझमें समाना ही होगा .
आपकी सरल अभिव्यक्ति हमेशा मन को भा जाती है
ReplyDeleteशब्द जैसे ढ़ल गये हों खुद बखुद, इस तरह कविता रची है आपने।
ReplyDeleteछू लो तुम चाहे गगन
ReplyDeleteजमीं पर आना ही होगा
संसार झुका रहो मगन
मुझमें समाना ही होगा
उपमाओं से सुसज्जित रचना ,भाषा पर अच्छी पकड़ है | बधाई
छू लो तुम चाहे गगन
ReplyDeleteजमीं पर आना ही होगा
संसार झुका रहो मगन
मुझमें समाना ही होगा .
यही तो शाश्वत सत्य है।
क्या सजीव चित्रण किया है बधाई एक शाश्वत सत्य को दर्शाती पोस्ट
ReplyDeletebahut sunder rachana...ek sach .....
ReplyDeletebahut hi sajeev rachanaa !
ReplyDeleteबेहतर...
ReplyDeleteमिट्टी से पैदा हुए, मिट्टी में मिल जाना है,
ReplyDeleteजीवन जिसको कहते हैं, उसका यही फ़साना है।
सुन्दर भावमय करते शब्द ...।
ReplyDeleteबेहद भावपूर्ण!
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