मैं मिटटी धरती वाली
कहते हैं मेरे अपने
खिसक गई धरती पैरों से
रोते हैं मेरे सपने
मैं हूँ एक मिटटी बंजर
जिसमें न कोई अंकुर होगा
नहीं फलेगा कोई फल
फूल का भी आसार न होगा
आते जाते ताल तलैया
भिगो न पाए मेरे तन को
एक बार तो गंगा मैया
जुड़ा न पाई तपते मन को
मेरा कुछ उपयोग नहीं
व्यर्थ बना यह जीवन है
पथिक को छाया न कहीं
बोझ बड़ा यह हर पल है
मिटटी है कहलाती जननी
सब रस देती नियति के
उस ममता को क्या कहिये
सहती दंश विधाता के
गमले की मिटटी हो
या हो धरती वाली
कितने रत्न समेटे हो
या बीहड़ बंजर गाली
अपना सर्वस्व मिटा कर भी
चाहे अंकुर का खिलना
फल और फूल खिलाकर भी
चाहे चुप्पी ओढना .
मिटटी है कहलाती जननी
ReplyDeleteसब रस देती नियति के
उस ममता को क्या कहिये
सहती दंश विधाता के
बहुत सुंदर बिम्ब और प्रतीक का प्रयोग किया है आपने। कविता अच्छी लगी।
अपना सर्वस्व मिटा कर भी
ReplyDeleteचाहे अंकुर का खिलना
फल और फूल खिलाकर भी
चाहे चुप्पी ओढना .
Sach...ye dhartee jaise rhiday kee hee mahanta ho sakti hai...behad sundar rachana!
बहुत सुन्दर और प्रेरक रचना!
ReplyDeleteधरती सा कर्तव्य निभाया, तब हमें जीना आया।
ReplyDeleteमिटटी है कहलाती जननी
ReplyDeleteसब रस देती नियति के
उस ममता को क्या कहिये
सहती दंश विधाता के
bhaut sahi likha hai
आपकी इस उत्कृष्ट प्रवि्ष्टी की चर्चा आज शुक्रवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति
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