Wednesday, June 22, 2011

मिटटी धरती वाली





मैं मिटटी धरती वाली 
कहते  हैं मेरे अपने 
खिसक गई धरती पैरों से 
रोते हैं मेरे सपने 

मैं हूँ एक मिटटी बंजर 
जिसमें न कोई अंकुर होगा 
नहीं फलेगा कोई फल
फूल  का भी आसार न होगा 

आते जाते ताल तलैया 
भिगो न पाए मेरे तन को 
एक बार तो गंगा मैया 
जुड़ा न पाई तपते मन को

मेरा कुछ उपयोग नहीं 
व्यर्थ बना यह जीवन है 
पथिक को छाया न कहीं 
बोझ बड़ा यह हर पल है 

मिटटी है कहलाती जननी 
सब रस देती नियति के 
उस ममता को क्या कहिये 
सहती दंश विधाता के 

गमले की मिटटी हो 
या हो धरती वाली 
कितने रत्न समेटे हो 
या बीहड़ बंजर गाली 

अपना सर्वस्व मिटा कर भी 
चाहे अंकुर का खिलना 
फल और फूल खिलाकर भी
चाहे चुप्पी ओढना  .

7 comments:

  1. मिटटी है कहलाती जननी
    सब रस देती नियति के
    उस ममता को क्या कहिये
    सहती दंश विधाता के
    बहुत सुंदर बिम्ब और प्रतीक का प्रयोग किया है आपने। कविता अच्छी लगी।

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  2. अपना सर्वस्व मिटा कर भी
    चाहे अंकुर का खिलना
    फल और फूल खिलाकर भी
    चाहे चुप्पी ओढना .
    Sach...ye dhartee jaise rhiday kee hee mahanta ho sakti hai...behad sundar rachana!

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  3. धरती सा कर्तव्य निभाया, तब हमें जीना आया।

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  4. मिटटी है कहलाती जननी
    सब रस देती नियति के
    उस ममता को क्या कहिये
    सहती दंश विधाता के

    bhaut sahi likha hai

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  5. आपकी इस उत्कृष्ट प्रवि्ष्टी की चर्चा आज शुक्रवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!

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