राही हो तुम
राही है हम
मंजिल कहाँ
न जाने कल
था कौन सा
मोहक मोड़
सम्मोहन सा
दिया है छोड़
बढ़ चले कुछ
पल कदम
जीवन हुआ कुछ
हमकदम
छन छन आती
रश्मियाँ तनी
सखा जैसी थी
छाँव थोड़ी घनी
रेत पर छोड़
पैरों के निशां
जाएँ किस ओर
जहाँ हो आशियाँ
जुगनू कहे
मेरी राह कहाँ
सूरज बोले
तम है वहां
अपने साए से
भागे दृग
अनजान महक से
कस्तूरी मृग .
कम शब्दों में गहरे भाव!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना!
उम्दा रचना
ReplyDeleteजुगनू कहे
ReplyDeleteमेरी राह कहाँ
सूरज बोले
तम है वहां
अपने साए से
भागे दृग
अनजान महक से
कस्तूरी मृग .
बहुत सुंदर कविता. गहन भाव्याव्यक्ति.
सब आनन्द हृदय समाया।
ReplyDeleteअपने साए से
ReplyDeleteभागे दृग
अनजान महक से
कस्तूरी मृग .
ये म्र्गत्रिष्णायें ही तो हमे भटकाती हैं सुन्दर भाव।
सुन्दर भाव सुंदर रचना.... अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया...
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