Wednesday, June 8, 2011

राही हैं हम



राही हो तुम 
राही है हम 
मंजिल कहाँ 
न जाने कल

था कौन सा 
मोहक  मोड़ 
सम्मोहन सा 
दिया है छोड़ 

बढ़ चले कुछ 
पल कदम 
जीवन हुआ कुछ 
हमकदम 

छन छन आती 
रश्मियाँ तनी 
सखा जैसी थी 
छाँव थोड़ी घनी 
 
रेत पर छोड़ 
पैरों के निशां
जाएँ किस ओर 
जहाँ हो आशियाँ

जुगनू कहे 
मेरी राह कहाँ 
सूरज बोले 
तम है वहां

अपने साए से 
भागे दृग 
अनजान महक से 
कस्तूरी मृग .

6 comments:

  1. कम शब्दों में गहरे भाव!
    बहुत सुन्दर रचना!

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  2. जुगनू कहे
    मेरी राह कहाँ
    सूरज बोले
    तम है वहां

    अपने साए से
    भागे दृग
    अनजान महक से
    कस्तूरी मृग .

    बहुत सुंदर कविता. गहन भाव्याव्यक्ति.

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  3. सब आनन्द हृदय समाया।

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  4. अपने साए से
    भागे दृग
    अनजान महक से
    कस्तूरी मृग .
    ये म्र्गत्रिष्णायें ही तो हमे भटकाती हैं सुन्दर भाव।

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  5. सुन्दर भाव सुंदर रचना.... अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया...

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