मरीचिका के पीछे चलती
आ पहुँचीं मैं रेगिस्तान
बिन जीवन के सांसें तपती
दूर तक फैला है वीरान
मिले कहीं पानी का सोता
जीने का अवलम्बन बन
हारी हिम्मत क्यों रोता
आँसूं पी जा न कर क्रन्दन
गरम हवा के सहे थपेड़े
रेत कहे टिकने न दूं
हवा बावरी फिरे उड़े
एक पल भी थमने न दूं
कैसे उसे नकार सकूं
प्रारब्ध प्रथम जो है मेरा
नियति को स्वीकार करूँ
निर्बल लिखा भाग्य मेरा
बीहड़ पथ पर चलते जाना
बस इतनी ही मंजिल है
मंजिल यदि चाहूं पाना
वह उतनी ही मुश्किल है
बढती हूँ निपट अकेली
मरू ही मेरा बसेरा है
हंसती हुई जो मिले चमेली
समझो आया नया सवेरा है.
भावपूर्ण!!!
ReplyDeleteएकला चलोरे याद आ गया।
ReplyDeleteज़िन्दगी का लक्ष्य निर्धारित हो और दिल में जज़्बा हो तो हर मुश्किल से पार पाकर कदम बढ़ाते जाना है। सकारात्मक सोच लिए एक बेहतरीन कविता।
उत्साह के हिलोरें लेती कविता।
ReplyDeleteबीहड़ पथ पर चलते जाना
ReplyDeleteबस इतनी ही मंजिल है
मंजिल यदि चाहूं पाना
वह उतनी ही मुश्किल है
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बहुत उम्दा रचना!
बढती हूँ निपट अकेली
ReplyDeleteमरू ही मेरा बसेरा है
हंसती हुई जो मिले चमेली
समझो आया नया सवेरा है.
नया सवेरा लाता सुंदर नवगीत. सकारात्मक सोच लिए एक बेहतरीन प्रस्तुति.
मंजिल हो कठिन मगर उस तक चल कर जाने का हौसला ज़रूरी है ...
ReplyDeleteचलते रहें तो मंजिल मिले ना मिले , क्या ग़म है !
बीहड़ पथ पर चलते जाना
ReplyDeleteबस इतनी ही मंजिल है
मंजिल यदि चाहूं पाना
वह उतनी ही मुश्किल है
manjil pana muskil hai lekin namukin nahi, agar sahi disha mein prayas kiye jaye toh manjil mil hee jate hai
सकारात्मक सोच लिए एक बेहतरीन प्रस्तुति|
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