Thursday, June 16, 2011

तुम सब हो



तुम सब  हो 
मैं कुछ  नहीं 
तुम प्रेम हो 
मैं पात्र नहीं 

तुम दरिया हो 
मैं बूँद नहीं 
तुम बहते हो 
मेरा अस्तित्व नहीं 

तुम दीपक हो 
मैं तेल नहीं 
देते प्रकाश हो 
मैं तिमिर गली 

तुम पुष्प सुवासित 
मैं गंधहीन 
तुम रसिया 
मैं रसहीन 

  मुख पर विराजे  
चन्द्र चकोर 
मैं आन बसूँ
जाने किस ओर 

प्रीत की गगरी 
हलाहल छलके
मरूं में पसरी 
रेत हूँ जैसे 

तुम मंदिर का 
मंत्रोच्चार 
मैं हूँ भाग्य का
अधलिख पात .  

13 comments:

  1. यही है सत्य और जीवन दर्शन्।

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  2. तुम सब हो
    मैं कुछ नहीं
    तुम प्रेम हो
    मैं पात्र नहीं

    bhaut khub dear

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  3. "तुम सब हो"
    isi ek pankti mein sab kuchh samahit hai

    bahot hi achcha srijan......
    bahot bahot badhai aapko

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  4. "तुम सब हो


    -क्या बात है...बहुत बढ़िया.

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  5. रचना में समर्पण की भावना दिखती है क्योंकि तुम सब कुछ हो और मै कुछ भी नहीं जैसा भावपूर्ण अभिव्यक्ति

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  6. समर्पण की यह अभिव्यक्ति .. बहुत सुन्दर

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  7. बहुत सुन्दर विनम्र भाव।

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  8. तुम मंदिर का
    मंत्रोच्चार
    मैं हूँ भाग्य का
    अधलिख पात .bahut behatrin abhibyakti.badhaai aapko.


    ploease visit my blog.thanks

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  9. तुम मंदिर का
    मंत्रोच्चार
    मैं हूँ भाग्य का
    अधलिख पात .

    जीवन के सत्य को बहुत सुंदरता से उकेरा है..बहुत सुन्दर

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  10. तुम मंदिर का
    मंत्रोच्चार
    मैं हूँ भाग्य का
    अधलिख पात ....बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति सुन्दर भाव।

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