महुवा था गिरता
मेरे दालान ओसारे
खुशबू था फैलाता
आँगन और चौबारे .
पौ फटने के साथ
पनघट पर जाना
सखियों से मिलना
बतियाँ भर लाना .
पूरब की लाली
चमकाती बाली
रंभाती गइयां
हांकती मईया .
अन्न और दलहन
कहलाता था गल्ला
छोटी खुशियों से
हँसता था मोहल्ला .
आंसू या मुस्कान
सब होते थे साझे
जरा छलक जाए
सब रहते थे आगे .
कहाँ गए वो
दिन सीधे सादे
सूरज था फीका
बिंदिया के आगे .
आया ये कैसा
परिवर्तन है
अदृश्य हुआ
सब आकर्षण है .
चाँद और तारे
सब हैं यथावत
धरती की धुरी
गति से समागत .
कहाँ खो गया
वो अमृत कलश
गजानन एरावत
कामधेनु की झलक .
रिक्त हो चला
मनु तेरा संसार
भाव बिन फीका
श्रद्धा का अभिसार .
रंगों की एक तूलिका
फेर दो मुझ पर कभी
खिल उठे कोई कलिका
गुनगुना उठे भ्रमर तभी.
बहुत ही खूबसूरत रचना…………सुन्दर भाव समन्वय्।
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