Monday, November 1, 2010

तय नहीं था जो

सूरज था अपने यौवन पर
बिखरी अभी थी लालिमा
घन दल आये उस पर
छा गई घोर कालिमा .

बसंत था कुछ अलसाया
थी बहारें भी बहकी हुई
कौन राह से पतझड़ आया
बगिया सारी सुनसान हुई .

आशा थी पुष्प आया
नया सा मेरे उपवन में
बैरी अंधड़ बन आया
वीरानी दे गया चेतन में .

बेमौसम की ये बरसात
बहा ले गई मन का गाँव 
दूर कर दिया अपनों से
रहा नहीं कोई अपना ठाव .

चंदा था बहुत गुमान किए
चांदनी संग करता अठखेली
मैं तेजस घट साथ लिए
रूपस न तुम मुझसे अलबेली .

कैसे बदला मीत मेरा
जीवन हो गया रसहीन
तय नहीं था जो गया गुजर
कैसे रहना होगा तुम बिन .

4 comments:

  1. कैसे बदला मीत मेरा
    जीवन हो गया रसहीन
    तय नहीं था जो गया गुजर
    कैसे रहना होगा तुम बिन . ...

    बहुत सुन्दर और नवीन उपमा वाली कविता.. मन मुग्ध हो गया

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  2. बहुत ही सुन्‍दर भावमय प्रस्‍तुति ।

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  3. बेहद भावप्रवण रचना।

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