Sunday, November 14, 2010

लौट जाओ तुम अपने नीड़

अधरों का तनिक  विस्तार 
करती  विस्तृत  दुनिया उसकी
एक हंसी की पतली  रेखा
भर देती  झोली उसकी .

एक झलक पाने को बस
सदियों तक रखते धीर
चंदा सूरज तारे पूछे
किसके लिए  रहो  अधीर  .

पलक कहे नैनों में भर लूं
ह्रदय समाना चाहे आह में
बाहें कहती कंठं लगा लूं
कदम जाए ठिठक  राह में .

मलिनता देखी जो मुख पर
सब ओर छा जाए अंधकार
ज्योतिपुंज  ले आऊं  धरा पर
जगमग का हो जाए अधिकार .

सपनों का मेरे पता  पूछते
धरा से लेकर अम्बर तक
खोज में उनकी रहे जूझते
जाऊं उन्हें  लाने  पाताल तक . 

स्मृतियाँ मेरी उन्हें रूलाती
हर लेती हैं दिल का चैन
प्रीत की मैना उन्हें सताती
जाग जाग कर काटे  रैन .

लौट जाओ तुम अपने  नीड़
पाषाण  ह्रदय पर रख लूं मैं
छुपा न ले दुनिया की भीड़
भावों में अपने भर लूं मैं .

7 comments:

  1. बहुत मनोहारी अद्भुत चित्रण

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  2. लौट जाओ तुम अपने नीड़
    पाषाण ह्रदय पर रख लूं मैं
    छुपा न ले दुनिया की भीड़
    भावों में अपने भर लूं मैं .
    gahri bhawabhivyakti

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  3. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना --- ( लक्ष्य नहीं मैं ) 16 -11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
    कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

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  4. हर बार की तरह शानदार प्रस्तुति

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  5. ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी.

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