उगते सूरज की लाली
लाली की नरम धूप हूँ मैं
आँगन मैं गौरैया चहके
चीं चीं का मधुर संगीत हूँ मैं
सिहरा दे जो हवा का झोंका
उसमें बसा स्निग्ध स्पर्श हूँ मैं
देख उन्हें नजरें झुक जाए
मद नैनों की लाज हूँ मैं
राह देखते सावन सूने
एक लम्बा इन्तजार हूँ मैं
कभी भी पूरा हो न सके
ऐसा अपूर्ण स्वपन हूँ मैं
लगता हैं मैं नहीं मैं
मन के भावों का भार हूँ मैं
सिहरा दे जो हवा का झोंका
ReplyDeleteउसमें बसा स्निग्ध स्पर्श हूँ मैं
sundar bhaw
इसी एहसास से तो ज़िन्दगी बनती संवरती है। अच्छी रचना।
ReplyDeleteसिहरा दे जो हवा का झोंका
ReplyDeleteउसमें बसा स्निग्ध स्पर्श हूँ मैं
कितनी सीधी सच्ची खरी बातें
राह देखते सावन सूने
ReplyDeleteएक लम्बा इन्तजार हूँ मैं
Gahra ehsaas liye ...
आपकी कविता मैं नहीं मैं में आप ही आप व्याप्त हैं... लेकिन आप अपनी शालीनता, सहजता, उदारता के कारण स्वीकार नहीं कर रही.. ऐसा तो अलौकिक प्रेम में ही होता है....
ReplyDeletebahut sunder ehsason se sajaya hai aapne apni kavita ko..
ReplyDeleteदुनिया के वास्ते मैं क्या कुछ न हो गया
ReplyDeleteमेरा वज़ूद तो इसी होने में खो गया।
की स्थिति प्रस्तुत करती कविता।