Sunday, November 28, 2010

मैं नहीं मैं





उगते सूरज की लाली
लाली की नरम धूप हूँ मैं 
 
आँगन मैं गौरैया चहके 
चीं चीं का मधुर संगीत हूँ मैं 
 
सिहरा दे जो हवा का झोंका 
उसमें बसा स्निग्ध स्पर्श हूँ मैं 
 
देख उन्हें नजरें झुक जाए 
मद नैनों  की लाज हूँ मैं 
 
राह देखते सावन सूने 
एक लम्बा इन्तजार हूँ मैं  
 
कभी भी  पूरा हो न  सके 
ऐसा अपूर्ण स्वपन हूँ मैं 
 
लगता हैं मैं नहीं मैं 
मन के भावों का भार हूँ मैं

7 comments:

  1. सिहरा दे जो हवा का झोंका
    उसमें बसा स्निग्ध स्पर्श हूँ मैं
    sundar bhaw

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  2. इसी एहसास से तो ज़िन्दगी बनती संवरती है। अच्छी रचना।

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  3. सिहरा दे जो हवा का झोंका
    उसमें बसा स्निग्ध स्पर्श हूँ मैं
    कितनी सीधी सच्ची खरी बातें

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  4. राह देखते सावन सूने
    एक लम्बा इन्तजार हूँ मैं

    Gahra ehsaas liye ...

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  5. आपकी कविता मैं नहीं मैं में आप ही आप व्याप्त हैं... लेकिन आप अपनी शालीनता, सहजता, उदारता के कारण स्वीकार नहीं कर रही.. ऐसा तो अलौकिक प्रेम में ही होता है....

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  6. bahut sunder ehsason se sajaya hai aapne apni kavita ko..

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  7. दुनिया के वास्‍ते मैं क्‍या कुछ न हो गया
    मेरा वज़ूद तो इसी होने में खो गया।
    की स्थिति प्रस्‍तुत करती कविता।

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