चक्रव्यूह में सपनों के
बिलकुल मैं गई उलझ
कितने द्वार इस जाल के
आता मुझको नहीं समझ .
हर मुहाने महारथी गहरा
हैं चौकस हथियारबंद
हर एक पर कड़ा पहरा
रहो सुप्त मन ही में बंद
सपने तो आखिर सपने हैं
पंखों में भरा है वायुवेग
हवा बहे जरा अनुकूल
उड़ान भरेंगे ले आवेग .
कोई शिला दीवार कोई
रोक इन्हें ना पाएगी
सपनों की है राह बहुत
संग बहा ले जायेगी .
जाने किस मिटटी के बने
मूर्छित नहीं ये हो पाते
पीकर प्रीत की संजीवनी
जीवित होकर उठ जाते
एक सम्भालूँ दूजा बागी
इन पर कैसे कसूँ डोर
रेशम धागा कसा ना जाए
ढीली गाँठ का खो जाए छोर
द्वन्द बहुत है मन मेरे
कैसे पार बसाऊँ मैं
व्यूह्जाल हैं बड़ा विकट
उलझ इसी में जाऊं मैं.
सपने तो आखिर सपने हैं
ReplyDeleteपंखों में भरा है वायुवेग
हवा बहे जरा अनुकूल
उड़ान भरेंगे ले आवेग .
आदमी कभी भी इस व्यहू जाल से नहीं निकल पाता ..आपकी कविता का हर एक पद्य विचारणीय है ...आपका आभार
यथार्थमय सुन्दर पोस्ट
ReplyDeleteआदमी कभी भी इस व्यहू जाल से नहीं निकल पाता
कविता के साथ चित्र भी बहुत सुन्दर लगाया है.
सपनों के व्यूह नहीं टूटते .
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति.
शुभ कामनाएं
सपने तो आखिर सपने हैं
ReplyDeleteपंखों में भरा है वायुवेग
हवा बहे जरा अनुकूल
उड़ान भरेंगे ले आवेग .
bahut achhe bhaw