Sunday, February 13, 2011

मन का कोना





दूर देस की एक गुजरिया 
बैठी उदास  है मन मारे 
कब आयेंगे पिया डगरिया 
प्रेम नजरिया मुझ पर डारे 

बचपन गया लड़कपन आया 
अँखियाँ दोनों  रहीं अकुलानी
धीमी दस्तक दे वसंत आया 
मंद मलय ने उड़ा  दी वीरानी  

रिश्ते नाते छूट गए सब 
तुम्हारी चौखट से  बंध कर
चंचल मनवा छूटे कब 
तुम्हारे आँगन में बस कर  

चुप है कंगन की खनखन  
अंजन है अँखियाँ मूंदे 
बेबस पायल की रुनझुन
बरसाती है मोती बूँदें    

ठहर गया रथ सूरज का 
अवाक् हुई गौरैया है 
मलिन  हुआ मुख गोरी  का
चाँद भी थोडा मुरझाया है 

जीने का बस लक्ष्य एक
राह तुम्हारी  रही निहार
तुम्हें देख जीवन रस बरसे 
आहट पर मैं हुई निसार   

सुखों को बना के बौना  
तुम हो कितना इतराते 
रिक्त रहा मन का कोना 
तुम ही उसे भर पाते  

8 comments:

  1. रिश्ते नाते छूट गए सब
    तुम्हारी चौखट से बंध कर
    चंचल मनवा छूटे कब
    तुम्हारे आँगन में बस कर
    waah... kitni achhi abhivyakti

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  2. बढ़िया कविता ! बेहद रोमांटिक

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  3. kiske udasi utari apne apni kavita mein

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  4. सुन्दर अभिव्यक्ति से सजी हुई बेहतरीन कविता। शुभकामनाए।

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  5. बहुत ही भावपूर्ण रचना.
    सलाम.

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  6. बहुत भावपूर्ण सुन्दर प्रस्तुति..

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  7. "जीने का बस लक्ष्य एक
    राह तुम्हारी रही निहार
    तुम्हें देख जीवन रस बरसे
    आहट पर मैं हुई निसार "...
    कहाँ दीखता है अब ऐसा प्रेम... सुन्दर कविता .. सुन्दर भाव... शुभकामना !

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