अंतर्मन एक दीप जलाये
बैठी हूँ मैं अपने ओसारे
भूल कहाँ हुई मुझसे
सूना रह गया मेरा सावन
उनको देख देख दिन होता
देख उन्हें होती है शाम
उनसे पूछ आता वसंत
मूंह फेरे हो जाती पतझड़
वे ही मेरे राम श्याम
मेरी गीता रामायण हैं
रोम रोम में बसे सखा
वे ही प्रभु हमारे हैं
राह निहारूं शबरी सी
अहिल्या बन रहूँ खड़ी
साजन की बैरागन सी
थाल भावों का लिए खड़ी
अंतर में बढ़ता तूफान
साँसे डुबो ले जाएगा
मिलने की आस महान
वही बचा ले जाएगा .
क्या करूं कि उनका मन जीतूँ
चाहत उनकी मैं पा जाऊं
खुद को कैसे करूं निछावर
चरणों में खुद ही बिछ जाऊं
कब होगी मेरी दिवाली
झकझोर रहा है अंतर्मन
मन मेरा जो रहे प्रफुल्लित
जूझ रहा है तपता मन
हे चाँद सितारों आसमान
कुछ तो मेरी करो मदद
मेरे आँचल में रहो सिमट
मनमीत मेरे हो जाएँ गदगद
कब होगा वनवास ये पूरा
थम जायेगी महाप्रलय
घर लौटेंगे मेरे प्रियवर
अपना भी होगा महाप्रणय