Wednesday, January 5, 2011

अरण्य






एक मोरनी  और एक मोर  
विचर रहे थे वन ही वन  
कहाँ बनायें अपनी ठौर
सोच रहे थे मन ही मन . 

घुप  घनेरा वन  अनमोल   
हरीतिमा  की है अति वृष्टि 
खग वृन्द करता किलोल 
फूट रही है नव सृष्टि . 


कलकल नदिया बहे अकेले
जल निर्मल दर्पण जैसा
निर्झर गाये गीत अलबेले
जंगल में यह  मंगल कैसा  .

पत्र पुष्प नदिया पहाड़
रचयिता के हैं अलंकार
कुलांचे भरता स्वर्ण मृग
धीमे  बहती मृदुल बयार .


शांत सरोवर सूना तट
छन छन रश्मि आती है
लपेटे स्वर्णिम उज्जवल पट
दिन का संदेशा लाती है 


एक छोर से दूजा छोर 
अपना बस  संसार यही
निर्भय अक्षय है सब ओर 
है रमणी की  चाह यही


आओ प्रिय बढाओ हाथ
कर लें निर्मित प्रेम कुटी
क्षितिज यहाँ रुके सुस्ताये  
अरण्य में जैसे सुर्ख बहूटी .  

7 comments:

  1. है अरण्य-सुख जीवन में भी।

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  2. बहुत सुन्दर रचना...बधाई स्वीकारें

    नीरज

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  3. बहुत सुंदर भाव युक्त कविता

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  4. "शांत सरोवर सूना तट
    छन छन रश्मि आती है
    लपेटे स्वर्णिम उज्जवल पट
    दिन का संदेशा लाती है "

    .... अरण्य के माध्यम से प्रेम को अभिव्यक्त करती सुन्दर कविता... प्रकृति के विभिन्न उपमानो का बढ़िया उपयोग किया है आपने...

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  5. बहुत ही सुन्‍दर भावमय करते शब्‍द ।

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