बार बार करूँ विनती
न आना मेरे द्वार
आँखों में अश्रू लिए
फिर भी रही निहार
आये दूर देस से तुम
नहीं यहाँ कोई व्यापार
देने आये प्रीत की कुमकुम
कर न सकूं स्वीकार
देखूं मन नैनों से तुमको
मन पावन हो जाता
नहीं बसे दूर मुझसे
आहट आस पास ही पाता
लगता है आते हो मुझ तक
कैसे मैं तुमको समझाऊँ
प्रीत तुम्हारी ऐसा बंधन
मर न सकूं न जी पाऊँ
जैसा रूप बनाना चाहूं
काहे को नहीं बनता है
भरना चाहूं सिर्फ भाव
भाव क्यों नहीं ठहरता है
क्या होगी परिणति इसकी
सोच के मन घबराता है
वंचित होंगे एक झलक को
दृश्य सामने आता है .
द्वन्द भरा यह जीवन
सिक्के के दो पहलू
दोनों तो मेरे ही हैं
आँचल किसको बांधू